79 साल की आज़ादी: नारों में विकास, हकीकत में बेबसी




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नवीन चौहान
हमारा भारत आज 79वां स्वतंत्रता दिवस बड़े धूमधाम व हर्षोल्लास के साथ मना रहा है। आसमान में तिरंगा लहरा रहा है, मंचों पर विकास के गीत गूंज रहे हैं, और टीवी चैनलों पर ‘नए भारत’ की चमचमाती कहानियां चल रही हैं। लेकिन इन रंगीन मंचों के पीछे एक स्याह सच छुपा है — भूख, बेरोज़गारी, नशा, लूट और खामोशी।

जिन वीरों ने फांसी के फंदे को गले लगाकर हमें गुलामी से आज़ादी दिलाई, उनके सपनों का भारत आज नशे की गिरफ्त में है। युवा रोजगार के बजाय नशे के धंधे और ख्वाबों में डूब रहा है, जनता महंगाई के बोझ तले दबी है, और बुजुर्ग अपने ही घर में बेगाने होकर अनाथ आश्रम में आशियाना खोज रहे हैं।

देश का अन्नदाता किसान भी चैन की सांस नहीं ले पा रहा। उसकी जमीन पर बिल्डरों की भूखी निगाहें हैं, और उसकी मेहनत का मोल बाजार में दलाल तय करते हैं। शहरों में विकास की ऊंची इमारतें खड़ी हो रही हैं, लेकिन गांवों में किसानों के सपनों की दीवारें ढह रही हैं।

मिलावटी दूध, जहरीली सब्जियां, नकली दवाएं — यही है आज का बाज़ार, और इसी पर आम आदमी का जीवन निर्भर है। पेट भरने के लिए जो खा रहे हैं, वो धीरे-धीरे ज़हर साबित हो रहा है।

सरकारें 79 साल की विकासगाथा के पोस्टर छाप रही हैं, विपक्ष चुनावी नारे बना रहा है, और पत्रकार — जो कभी सत्ता से सवाल करते थे — अब सत्ता के प्रचारक बन गए हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, जिसका काम सच दिखाना था, अब सत्ता की पीआर एजेंसी बन गया है।

और जनता? उसने चुप्पी साध ली है। न सड़कों पर आवाज़, न अखबारों में सवाल। बस तिरंगे के नीचे फोटो, सोशल मीडिया पर देशभक्ति के पोस्ट, और पेट में खालीपन।

सवाल यह है — क्या यही है वो आज़ादी, जिसके लिए लाखों ने अपनी जान दी थी?
अगर यह आज़ादी है, तो फिर हमें एक और आज़ादी की जरूरत है —
उस सिस्टम से आज़ादी, जिसमें विकास सिर्फ नारों में होता है और हकीकत में सिर्फ जिंदा रहने की जद्दोजहद।