हरिद्वार का पंजाबी समाज आज भी तलाश रहा है ‘कपूर साहब’ जैसी शख्सियत




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न्यूज127/हरिद्वार,देहरादून
उत्तराखंड की राजनीति में ऐसे जनप्रतिनिधि बहुत कम हुए हैं, जिनका नाम लेते ही जनता के मन में सहज सम्मान उमड़ पड़े। देहरादून के हरबंस कपूर उन्हीं दुर्लभ नेताओं में से एक थे — सादगी में नेतृत्व, कर्म में अनुशासन और जनता के बीच अटूट विश्वास की मिसाल। लेकिन हरिद्वार में पंजाबी समाज का कोई भी नेता स्वर्गीय हरबंश कपूर के पदचिंहों का अनुसरण नही कर पाया। यही कारण रहा कि हरिद्वार की राजनीति में पंजाबी समाज को नेतृत्व नही मिल पाया। जिनको नेतृत्व मिला उनके कदमों में ब्रेक लगा दिए।

हरिद्वार में नहीं उभरा ‘हरबंस कपूर’ जैसा पंजाबी नेता

हरिद्वार का पंजाबी समाज, जो व्यापार, शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति रखता है। जनता के सुख दुख का साथी बनता है। किसी भी आपाताकालीन स्थिति में पंजाबी समाज बढ़कर जनता और सरकार का सहयोग करता है। लेकिन हरिद्वार की राजनीति में अब तक हरबंस कपूर जैसा सर्वस्वीकार्य चेहरा नहीं पा सका। और ना ही उनके ​पदचिंहो का अनुसरण कर पाया।

हरिद्वार की बात करें तो पंजाबी समाज से जुड़े नेताओं में — स्वर्गीय राममूर्ति वीर भीष्म पितामह की भूमिका में रहे। उन्होंने पंजाबी समाज के साथ सर्वसमाज को जोड़ने का कार्य किया और पंजाबी समाज को एकजुट रखकर उनका मान बढ़ाया। जबकि राजकुमार अरोड़ा पूर्व पालिका अध्यक्ष, कमल जौरा पूर्व पालिका अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब जरूर रहे। लेकिन सियासी हालात और परिस्थितियों ने उनको बढ़ते कदमों में बेड़िया डाल दी। वर्तमान में सक्रिय जगदीश लाल पाहवा, सुरेश गुलाटी, संदीप कपूर, परमानंद पोपली, प्रवीन कुमार, प्रदीप कालरा, राजकुमार, राकेश मल्होत्रा, विक्की तनेजा, सुनील अरोड़ा, राम अरोड़ा जैसे नाम जनसंपर्क, सादगी और जनता से प्रत्यक्ष जुड़ाव के स्तर पर कार्य कर रहे है। लेकिन यह सभी नाम कपूर साहब जैसी जन-नेतृत्व की गहराई तक नहीं पहुँच पाए।

बताते चले कि हरबंस कपूर की राजनीति जाति या समुदाय की सीमाओं से परे थी — वे देहरादून के हर घर के ‘अपनों’ में शामिल थे। शायद यही कारण है कि हरिद्वार का पंजाबी समाज आज भी एक ऐसे जनप्रतिनिधि की तलाश में है, जो उनके बीच रहकर, बिना दिखावे के, जनता के कार्यों को अपनी प्राथमिकता बनाए।

आदर्श की कमी
जहाँ देहरादून को हरबंस कपूर जैसा निःस्वार्थ सेवाभावी नेता मिला, वहीं हरिद्वार की राजनीति में अब तक ऐसा चेहरा नहीं उभरा, जो समाज, संगठन और सेवा — तीनों का संतुलन बनाकर आगे बढ़ सके।

कपूर साहब की स्मृतियाँ केवल अतीत नहीं, बल्कि वर्तमान राजनीति के लिए एक आदर्श मानक हैं।
अगर हरिद्वार का पंजाबी समाज किसी दिन राजनीति में अपना “हरबंस कपूर” खोज ले, तो वह केवल एक नेता नहीं, बल्कि एक संस्कार और सत्यनिष्ठा की वापिसी होगी।

बात सदियों पुरानी है जब देहरादून उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, तब जिले में तीन विधानसभा क्षेत्र थे — देहरादून शहर, मसूरी और चकराता। देहरादून शहर का विस्तार धर्मपुर से लेकर नेहरू कॉलोनी, राजपुर से पटेलनगर और प्रेमनगर तक था। उस समय यह क्षेत्र राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत प्रतिष्ठित माना जाता था।

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की लहर में हरबंश कपूर साहब भले ही विधानसभा चुनाव हार गए हों, लेकिन जनता से उनका रिश्ता कभी नहीं टूटा। 1989, 1991, 1993 और 1996 में उन्होंने लगातार जीत हासिल कर देहरादून की राजनीति में नई पहचान बनाई। जनता उन्हें केवल भाजपा का विधायक नहीं, बल्कि “अपने कपूर साहब” कहकर पुकारती थी।

सत्ता से ज़्यादा सेवा की पहचान
1991 में कल्याण सिंह सरकार में उन्हें उत्तर प्रदेश का ग्रामीण विकास राज्य मंत्री बनाया गया। 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वे अंतरिम सरकार में भी मंत्री बने और उसके बाद लगातार आठ बार विधायक चुने गए — यह केवल जीत नहीं, बल्कि जनता के अटूट विश्वास की कहानी थी।

विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए हरबंश कपूर ने कई ऐसी व्यवस्थाएँ लागू कीं, जो आज भी सदन की गरिमा का उदाहरण हैं। उन्होंने तय किया कि सदन की कार्यवाही शुरू होने के बाद विपक्ष पहले दिन दोपहर से पहले वाकआउट नहीं कर सकता — यह नियम लोकतंत्र में संवाद और अनुशासन दोनों को जीवित रखने का प्रयास था।

राजनीति में मिसाल, चरित्र में चमक
हरबंस कपूर का दुनिया को छोड़कर जाना देहरादून ही नहीं, पूरे उत्तराखंड के राजनीतिक जीवन में एक चरित्र का खालीपन छोड़ गया। उन्होंने दिखाया कि राजनीति केवल पद या शक्ति का खेल नहीं, बल्कि सेवा और संयम का माध्यम है।

आज जब कई विधायक और नेता ठेकेदारों के साथ मंच साझा करते दिखते हैं, तब हरबंस कपूर की सादगी, ईमानदारी और जनसेवा और भी प्रासंगिक हो जाती है।
उनका जीवन कहता है —
“राजनीति में पद नहीं टिकता, चरित्र टिकता है; सत्ता नहीं, सेवा अमर होती है।”
देहरादून की गलियों में जब भी किसी आम नागरिक के काम की चर्चा होती है, आज भी कोई कह उठता है — “कपूर साहब होते तो बात वहीं ख़त्म हो जाती।”