गुरूकुल कांगड़ी की धरती पर न्याय की प्रतीक्षा: इतिहास रचता एक आंदोलन, भविष्य संवरने की उम्मीद




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नवीन चौहान
हरिद्वार की पवित्र भूमि पर स्थित गुरूकुल कांगड़ी समविश्वविद्यालय, एक ऐसा नाम है जो शिक्षा, संस्कृति और राष्ट्रनिर्माण के गौरवशाली इतिहास से जुड़ा है। स्वामी श्रद्धानंद की तपोभूमि, जहां से महात्मा गांधी से लेकर पंडित नेहरू तक ने प्रेरणा ली, आज खुद अपने अस्तित्व और सम्मान की लड़ाई लड़ रहा है।
इस ऐतिहासिक शिक्षण संस्था का भविष्य अब उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश पर निर्भर है। यह आदेश केवल एक कानूनी फैसला नहीं होगा, बल्कि यह तय करेगा कि क्या गुरूकुल फिर से उसी शिखर पर लौटेगा, जहां से वह एक समय देश को दिशा दिखाया करता था।

42 दिनों का इतिहास रचता आंदोलन
गुरूकुल के कर्मचारियों ने रेगुलेशन 2023 के समर्थन में एक ऐसा आंदोलन खड़ा किया है, जो अब तक का सबसे लंबा और ऐतिहासिक आंदोलन बन चुका है। 42 दिनों से कर्मचारी विश्वविद्यालय के धरनास्थल पर डटे हुए हैं—ना थके हैं, ना झुके हैं। इनकी मांग स्पष्ट है—गुरूकुल को राजनीति से बाहर निकालो और शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी के नियमों के अनुसार चलाओ।

रजनीश भारद्धाज, कर्मचारी संघ के नेता, कहते हैं:
हमें न किसी आर्य प्रतिनिधि सभा से उम्मीद है, न भाई-भतीजावाद से। हमारा भरोसा सिर्फ भारत सरकार और न्यायपालिका में है। हाईकोर्ट से हमें न्याय जरूर मिलेगा।”

इतिहास से लेकर आज तक
गुरूकुल कांगड़ी की नींव आर्य समाज के सिद्धांतों पर रखी गई थी। एक समय था जब यह विश्वविद्यालय वेदों की शिक्षा और आधुनिक ज्ञान का संगम था। लेकिन समय के साथ यह पवित्र संस्था धीरे-धीरे राजनीतिक हस्तक्षेप और सांठगांठ की भेंट चढ़ने लगी।
आर्य प्रतिनिधि सभाएं—दिल्ली, हरियाणा और पंजाब से जुड़ी—गुरूकुल की आत्मा से जुड़ी जरूर रहीं, लेकिन आज वही सभाएं आपसी खींचतान, नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद, और शैक्षणिक गुणवत्ता में गिरावट की वजह बनती जा रही हैं।

यूजीसी का अल्टीमेटम और न्याय की लड़ाई
यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग), जो हर साल करोड़ों रुपये का अनुदान देता है, अब गुरूकुल की स्थिति से नाखुश है। उसने Regulation 2023 लागू करने का निर्देश दिया है—जिसके तहत कुलपति की नियुक्ति और अन्य व्यवस्थाएं केंद्र सरकार के नियमों से संचालित होंगी।

हालांकि, आर्य प्रतिनिधि सभा अब भी गुरूकुल पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहती है। उन्होंने यूजीसी से तीन साल का समय मांगा और एक हलफनामा दायर किया। लेकिन कर्मचारियों ने इसे साफ नकारते हुए कहा—अब और नहीं।
इस बीच प्रोफेसर हेमलता, जो यूजीसी द्वारा नियुक्त कुलपति हैं, को दरकिनार कर सभा ने प्रभात कुमार सेंगर को कार्यवाहक कुलपति नियुक्त कर दिया। मामला तूल पकड़ गया और अब यह हाईकोर्ट की चौखट तक पहुंच चुका है।

कोर्ट के आदेश का इंतजार
अब सबकी निगाहें हाईकोर्ट के फैसले पर टिकी हैं। कर्मचारियों से लेकर विश्वविद्यालय के पदाधिकारी तक, हर कोई इस आदेश को लेकर सांसें थामे बैठा है। क्योंकि यही फैसला तय करेगा कि गुरूकुल अब शिक्षा का मंदिर बना रहेगा या राजनीति का अखाड़ा।

कार्यवाहक कुलपति प्रभात कुमार सेंगर का कहना है:
हाईकोर्ट ने कल बहस के दौरान एपीएस के दस्तावेज मांगे हैं। जैसे ही निर्णय आएगा, हम पूरी तरह आदेशों का पालन करेंगे।

आंदोलन की एकजुटता, भविष्य की नींव
इस पूरे घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि गुरूकुल कांगड़ी का पुनर्जागरण अब जनता के, खासकर कर्मचारियों के हाथ में है। उनकी एकता, संघर्ष और न्याय में आस्था ने यह सिद्ध कर दिया कि जब शिक्षा से खिलवाड़ होता है, तो सबसे पहले शिक्षक ही खड़े होते हैं। यह केवल गुरूकुल कांगड़ी का संघर्ष नहीं है। यह भारत की हर उस संस्था की लड़ाई है जो राजनीतिक हस्तक्षेप से जूझ रही है, और जो अपने मूल्यों को बचाने के लिए उठ खड़ी हुई है।

गुरूकुल कांगड़ी के भविष्य का फैसला अब बस कुछ कदम दूर है। अदालत का निर्णय केवल एक संस्था नहीं, बल्कि एक विचारधारा, एक परंपरा और एक आंदोलन की दिशा तय करेगा। गुरूकुल कांगड़ी फिर से अपने वैदिक वैभव और आधुनिक विज्ञान के अद्भुत संगम के रूप में दुनिया में चमक उठेगा। यह केवल एक निर्णय नहीं होगा—यह गुरूकुल की आत्मा का पुनर्जन्म होगा।