जहां बंदूक विरासत है और खामोशी कानून से तेज बोलती है




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गोवा
भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव, गोवा (IFFI) के इंडियन पैनोरमा – गैर-फीचर फिल्म खंड में प्रदर्शित डॉक्यूमेंट्री ‘चम्बल (NF)’ ने दर्शकों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। फिल्म चम्बल के उस भूगोल और समाज की परतें खोलती है, जहां इतिहास की भयावह स्मृतियां आज भी वर्तमान के स्वरूप को आकार देती हैं। यह कृति चम्बल को केवल डकैतों, अपराध और बंदूकों की भूमि के रूप में प्रस्तुत नहीं करती, बल्कि उसके सामाजिक मनोविज्ञान को उसके मूल सन्दर्भ में समझने का प्रयास करती है।

बंदूक: हथियार से आगे, एक सामाजिक प्रतिष्ठा का रूपक

शिवपुरी, भिंड, मुरैना, दतिया, ग्वालियर और श्योपुर के भूभाग से गुजरती यह फिल्म बताती है कि चम्बल में बंदूक केवल आत्मरक्षा का साधन नहीं, बल्कि सम्मान, पुरुषार्थ और गौरव की सांस्कृतिक परंपरा का स्थायी प्रतीक है। विवाह समारोहों में हर्षोल्लास के साथ होने वाली फायरिंग, चुनावों में शक्ति-प्रदर्शन और शस्त्र पूजा यहां जीवन के स्वाभाविक हिस्से की तरह स्वीकृत हैं। फिल्म यह रेखांकित करती है कि बंदूक का होना यहां सामाजिक शक्ति का सत्यापन है, जबकि उसका न होना कमजोरियों का परिचायक माना जाता है।

अनहद मिश्रा की दृष्टि—सनसनी से दूर, यथार्थ के करीब

फिल्म के निर्देशक अनहद मिश्रा ने चम्बल को सनसनीखेज घटनाओं की भूमि के रूप में दिखाने से परहेज किया है। उनकी कैमरा भाषा खुरदुरी जमीन, तपी हुई चुप्पियों, कांटेदार झाड़ियों और अतीत के घावों के बीच एक संवेदनशील पुल रचती है। दृश्य विन्यास चम्बल को एक ऐसे समाज के रूप में सामने लाता है, जहां भय, गर्व और विडंबनाएं एक साथ सांस लेती हैं।

यह वही चम्बल है, जिसे साहित्य ने भय का पर्याय माना और सिनेमा ने रोमांच की कगार पर खड़ा कर दिया—लेकिन ‘चम्बल (NF)’ इसे उसके सामाजिक आत्मस्वीकार के आईने में दिखाती है।

मुख्य प्रश्न—क्या चम्बल पीछे छूट गया, या हम सब उसकी प्रतिध्वनियां हैं?

फिल्म एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है—
जब पूरे देश में शक्ति, प्रदर्शन और हथियार एक फैशन और सत्ता का विस्तार बन चुके हों, तो क्या चम्बल वास्तव में अतीत में अटका हुआ क्षेत्र है? या फिर आधुनिक भारत के बड़े हिस्से में वही मानसिकता अधिक परिष्कृत रूप में जीवित है?

फिल्म यह दिखाती है कि परंपरा और अपराध की सीमा चम्बल में धुंधली नहीं, बल्कि लगभग अदृश्य है—और यही उसकी जटिलता है।

दृश्य, ध्वनि और मौन—सिनेमा की परतदार भाषा

फिल्म का दृश्य संयोजन एक अनकही बेचैनी रचता है। सूनी जमीनों और शांत क्षणों में भी एक भयावह आकर्षण है, जो दर्शक को विचलित करते हुए भी नजरें हटाने नहीं देता। संगीत न्यूनतम है, चुप्पियां गहरी हैं और संपादन दर्शक के भीतर प्रश्नों की आग को लगातार भड़काता है।

यथार्थ का दस्तावेज़, चेतना का संकेत

‘चम्बल (NF)’ आधुनिक समय का एक शक्तिशाली सामाजिक दस्तावेज़ बनकर उभरती है—जहां हिंसा किसी अपराध से पहले एक स्वीकृत परंपरा बन चुकी है। फिल्म यह संकेत देती है कि जब परंपरा हिंसा में बदल जाए, तब इतिहास केवल स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी बन जाता है।

इस डॉक्यूमेंट्री ने महोत्सव में उपस्थित सिनेमा प्रेमियों, समीक्षकों और दर्शकों के बीच सार्थक चर्चा की नई राह खोल दी है।