केदारनाथ से कुछ नहीं सीखा! धराली त्रासदी ने खोली विकास के नाम पर हो रहे पर्यावरण दोहन की पोल




Listen to this article


नवीन चौहान
उत्तरकाशी जनपद के धराली क्षेत्र में खीर गंगा गाड़ से आया जलसैलाब चंद मिनटों में तबाही की ऐसी कहानी लिख गया, जिसकी तस्वीरें आंखें खोलने के लिए काफी हैं। मकान, होटल, होमस्टे और सेब के बागीचे सब मटियामेट हो गए। इस भीषण आपदा ने एक बार फिर केदारनाथ जैसी त्रासदी की याद दिला दी। सवाल उठता है—क्या हमने केदारनाथ आपदा से कुछ भी नहीं सीखा?

इस त्रासदी की भयावहता के पीछे केवल प्राकृतिक कारण ही नहीं, बल्कि इंसानी दिमाग की खुरापात तथा पैंसा कमाने के पीछे का लालच और लापरवाही भी बराबर की जिम्मेदार है। एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) के स्पष्ट निर्देश हैं कि किसी भी नदी के 100 मीटर के दायरे में निर्माण नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन धराली की तस्वीरें चीख-चीख कर बता रही हैं कि इस नियम को ठेंगा दिखाया गया।

❖ नदी का रास्ता छीना, अब खुद रास्ता बना ली

धराली की खीर गंगा गाड़ कभी सीधी और चौड़ी बहती थी। लेकिन समय के साथ उसके किनारों को कुतर-कुतर कर वहां होटल और होमस्टे खड़े कर दिए गए। मलबा और अतिक्रमण से नदी का रास्ता संकरा हो गया और जब पानी आया, तो उसने सबकुछ रौंद दिया। यही हाल गंगा, मंदाकिनी, भागीरथी और अलकनंदा जैसी बड़ी नदियों के किनारे बसे कस्बों का है।

❖ वैज्ञानिक कारण या विकास की कीमत?

कुछ रिपोर्ट्स में इस जलप्रलय के पीछे बादल फटने या झील टूटने की संभावना जताई गई। हालांकि मौसम विभाग (IMD) ने इस क्षेत्र में इतनी भारी वर्षा का कोई डेटा जारी नहीं किया है, जिससे बादल फटने की पुष्टि हो सके। विशेषज्ञ इसे ग्लेशियर झील के फटने या मोरेन के बहाव का नतीजा मान रहे हैं।

क्या है मोरेन?

मोरेन वो मलबा होता है जो ग्लेशियरों के पिघलने से बनता है—पत्थर, मिट्टी, बजरी आदि। ये मलबा अगर अस्थिर हो जाए या इसकी वजह से बनी झील टूट जाए तो नीचे बसे इलाकों में भारी तबाही मचा सकता है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी में भी चौराबाड़ी झील से ऐसा ही विनाश देखने को मिला था।

❖ उत्तराखंड: विकास या विनाश की ओर?

उत्तराखंड के पहाड़ भूगर्भीय रूप से बेहद नाजुक हैं। यह क्षेत्र सीस्मिक जोन 4 और 5 में आता है, यानी भूकंप संभावित क्षेत्र। यहां भारी मशीनों से सड़क निर्माण, टनल प्रोजेक्ट और विस्फोट से न केवल जमीन कमजोर हो रही है, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा हो गया है। वनों की कटाई, अनियमित पर्यटन, जलवायु परिवर्तन, और बढ़ती जनसंख्या इस संकट को और गहरा बना रही है।

❖ तीर्थाटन से पर्यटन और फिर त्रासदी

पारंपरिक तीर्थाटन अब व्यावसायिक पर्यटन में बदल गया है। इसके चलते ढांचागत विकास तो हुआ, लेकिन बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन या पर्यावरणीय मूल्यांकन के। नतीजा – नदी किनारे, पहाड़ों की ढलानों और संवेदनशील क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण, जिससे हर मानसून विनाश का दस्तक देता है।

केदारनाथ, रैणी और अब धराली जैसी घटनाएं हमें चेतावनी देती हैं कि अगर अब भी नहीं संभले, तो हिमालय में इंसानी बसावट और जीवन शैली खुद ही अपने विनाश का कारण बनती जाएगी।

❖ समाधान क्या?

एनजीटी के नियमों का सख्ती से पालन
पारंपरिक निर्माण शैली और स्थानीय ज्ञान का प्रयोग
सतत और वैज्ञानिक विकास नीति
पर्यटन पर नियंत्रण और पंजीकरण अनिवार्य
ग्लेशियर और जलस्त्रोतों की सटीक निगरानी
स्थानीय लोगों की भागीदारी और प्रशिक्षण