इस चुनाव में हर दल में दुशासन, प्रत्याशियों की उड़ रही नींद: पार्ट-2




देहरादून से योगेश भट्ट की रिपोर्ट
चलिए मुद्दे पर आते हैं। सत्ता की ‘महाभारत’ के लिए एक बार फिर भाजपा, कांग्रेस समेत तमाम सियासी दलों की चतुरंगणी सेनाएं मैदान में हैं। ओवरव्यू यह है कि राज्य की कुल 70 विधानसभा सीटों में से तकरीबन 52 सीटों पर सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस की बीच है । बाकी लगभग 18 सीटों पर या तो मुकाबला त्रिकोणीय है या फिर कांग्रेस और भाजपा का मुकाबला यहां किसी अन्य दल मसलन आम आदमी पार्टी, उक्रांद, बसपा या कहीं कहीं पर निर्दलीयों से होने जा रहा है । मुख्य मुकाबला अंततः भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सिमटा हुआ है, आम आदमी पार्टी, बसपा और कुछ सीटों पर निर्दलीयों की दमदार मौजूदगी से इन दलों का गणित जरूर बिगाड़ सकती है ।

मुकाबले में कौन ‘इक्कीस’ साबित होगा और कौन ‘उन्नीस’ रहेगा इस पर अब स्थिति बहुत साफ नहीं है। भाजपा में अपने कुनबे में नाराजगी है तो कांग्रेस में नेताओं के बीच ही कलह की स्थिति है। संग्राम से पहले कई बड़े योद्धा पाला बदल कर चुके हैं, सियासत का यह धर्म युद्ध दंगल में तब्दील हो चुका है। समझ ही नहीं आ रहा कि कौन कब खांटी भाजपाई से कांग्रेसी हो गया और कौन खांटी कांग्रेस से भाजपाई ।

उत्तराखंड की मौजूदा सियासत का चरित्र इससे समझा जा सकता है कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे किशोर उपाध्याय सिर्फ एक टिकट हासिल करने के लिए कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लेते हैं। हरक सिंह जिस कांग्रेस को गरियाते हुए भाजपा में शामिल होते हैं, पांच साल बाद उसी कांग्रेस में वापस लौट आते हैं ।

यह सियासत के सिंडिकेट का ही तो कमाल है कि रातों रात पार्टी छोड़कर कांग्रेस से भाजपा और भाजपा से कांग्रेस में आने वालों का स्वागत पार्टी का टिकट देकर करती है । भाजपा और कांग्रेस ने यह साबित कर दिया है कि राजनीति कोई विचार नहीं, सिर्फ अवसरवादिता है ।

उत्तराखंड की सियासत में भी क्या सकता है? भाजपा और कांग्रेस के अलावा विकल्प है ही नहीं। इस बार प्रदेश की सत्तर सीटों में से 57 सीटों पर काबिज सत्ताधारी भाजपा की स्थिति पहले के मुकाबले काफी कमजोर नजर आ रही है।

चुनावी रण में गीत जरूर ‘धामी पर हामी’ के बज रह रहे है लेकिन वोटों के लिए सहारा इस बार भी मोदी के तिलिस्म का ही है। दूसरी ओर विपक्षी कांग्रेस विरोधी लहर के भरोसे सत्ता में आने सपना देख रही है।

भाजपा के अबकी बार साठ पार और किया है, करती है, करेगी जैसे चुनावी नारे फजीहत करा रहे हैं । भाजपा के चुनावी नारे न कार्यकर्ताओं में जोश भर पा रहे हैं और न जनता का रिझाने वाले । आम लोगों में भाजपा के प्रति निराशा और नाराजगी आसानी से पढ़ी जा सकती है ।

भाजपा के प्रति निराशा का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस या किसी और को लेकर आम जनता में उत्साह है । कांग्रेस से भी आम मतदाता को कोई उम्मीद नहीं है। इसे नहीं नकारा जा सकता कि उत्तराखंड की सियासत को सिंडिकेट बनाने में भाजपा के साथ ही कांग्रेस भी बराबर की जिम्मेदार है ।

विपक्षी कांग्रेस की मानें तो कि इस बार मोदी लहर नहीं है जिसका लाभ उसे मिलना तय है । जबकि हकीकत यह है कि मोदी का तिलिस्म दरका जरूर है मगर टूटा नहीं है । भाजपा के खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी तो है, लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ इसके भरोसे ही आसानी से कांग्रेस ग्यारह सीटों से सत्ता के जादूई आंकड़े 36 के पार पहुंच पाएगी ?

सवाल यह भी है कि आखिर कांग्रेस ने ऐसा क्या किया है जिसके लिए कांग्रेस पर भरोसा किया जाए। इतना जरूर है कि प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति बेहतर हुई है । मगर एक सच्चाई यह भी है कि नेतृत्व के मसले पर कांग्रेस बड़े अंतकर्लह और द्वंद से जूझ रही है । ऐसे में कांग्रेस बहुमत हासिल करने के बाद भी सरकार बना पाएगी इस पर संदेह है।

दोनो ही सियासी दल आज अपने पक्ष में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण करा रहे है, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मो में प्रायोजित ओपिनियन पोल चल रहे हैं। कहीं भाजपा की सरकार बनती नजर आ रही है तो कोई कांग्रेस को बहुमत बता रहा है। जिसकी निष्ठा जिस दल के साथ है वह उसी की बढ़त बनाए हुए है।

टीवी चैनलों के ओपीनियल पोल, सोशल मीडिया के सर्वेक्षणों, राजनैतिक दलों के चुनाव प्रचार और वर्चुअल रैलियों के बीच अगर कुछ उत्तराखंड की सियासत में कुछ दिलचस्प है वह हैं सियासत से जुड़े कुछ मिथक ।
किसी की नजर बदरीनाथ और गंगोत्री सीट पर है तो किसी की नजर रानीखेत सीट पर है ।

मिथक है कि बदरीनाथ और गंगोत्री सीट से जितने वाला उम्मीदवार जिस पार्टी का होता है उसी पार्टी की प्रदेश में सरकार बनती है । रानीखेत सीट का मिथक यह है कि यहां से जो भी दल चुनाव जीतता है उसकी सरकार नहीं बनती । इसके अलावा रुद्रपुर जिले की खटीमा और गदरपुर सीट पर भी चुनाव पर नजर रखने वालों की दिलचस्पी है ।

खटीमा में दिलचस्पी का कारण यह मिथक है कि उत्तराखंड निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव में उतरने वाले उम्मीदवार को हार का सामना करा पड़ा है । खटीमा से मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर धामी चुनाव मैदान में है । दूसरी ओर गदरपुर सीट पर वर्तमान शिक्षा मंत्री अरविंद पाण्डेय मैदान में है और उत्तराखंड की सियासत का एक मिथक यह भी है कि शिक्षा मंत्री चुनाव नहीं जीतते ।

बहरहाल इस संग्राम के नतीजों में कौन जीता और कौन हार यह ज्यादा दिलचस्प नहीं होगा । कौन नया मुख्यमंत्री बनेगा और कौन मंत्री भी नहीं बनेगा, इसकी भी कोई परवाह नहीं । दिलचस्प तो यह देखना होगा कि ‘दुशासनों ‘ की इस महाभारत में कितने मिथक टूटते हैं और कितने बरकरार रहते हैं।



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