देहरादून से योगेश भट्ट की रिपोर्ट
आम चुनाव के बहाने इन दिनों उत्तराखंड की सियासत को जानने समझने की कोशिश हो रही है, नयी सरकार को लेकर अटकलें भी लगायी जा रही है। सियासत को कोसते हुए कोई गिरते पड़ते भाजपा की सरकार बनवा रहा है तो कोई कांग्रेस की। चुनाव में न मुद्दे हैं और न कोई चेहरा। उत्तराखंड की सियासत पर बहुत कुछ जानने समझने के लिए है ही नहीं। बस इतना ही है कि “एक ‘धुंध’ से आना है, एक ‘धुंध’ में जाना है ।
सियासत पर बात करने से पहले चलिए जानते हैं कि उत्तराखंड को इस सियासत ने दिया क्या? इक्कीस बरस के छोटे से अंतराल में ग्यारह मुख्यमंत्री, अफसरों और सौदागरों की फौज, सत्तर हजार करोड़ का कर्ज, आमदनी चवन्नी और खर्चा सवा रूपए से भी ज्यादा । विकास के नाम पर प्राइवेट यूनीवर्सिटियां, नियमों को ताक पर रख खड़ी हुई बिल्डरों की आवासीय और व्यवसायिक परियोजनाएं । साल दर साल खनन और शराब की नई नीति।
उद्योगों के नाम पर जमीनों की लूट । पयर्टक स्थलों पर बंदर, लंगूर और आवारा पशु। गांवों में जंगली सुअर, बाघ, तेंदुअे और भालू । खेती की जमीनों पर कंक्रीट के जंगल। बदहाल शिक्षा, बेहाल स्वास्थ्य सेवाएं । बेरोजगारों की भीड़ में चोर दरवाजे से नौकरियां। सरकारी योजनाओं में घपले, स्मार्ट सिटी के नाम पर धंधा। आए दिन की हड़तालें और आंदोलन । यह है बीते दो दशक में उत्तराखंड के सियासत की देन ।
दरअसल उत्तराखंड की सियासत एक ‘सिंडिकेट’ है, जिसमें वोटर की कोई हैसियत है ही नहीं । गिनती के मुटठी भर राजनेताओं, अंगुली पर गिने जाने वाले नौकरशाहों, चंद ठेकेदारों और पावर ब्रोकरों का गठजोड़ है उत्तराखंड की सियासत । चेहरा कोई भी हो राज्य की पूरी सियासत इसी ‘सिंडिकेट’ के इर्द गिर्द घुमती नजर आती है । बिना सिंडिकेट के तो उत्तराखंड की कोई रीति नीति तय ही नहीं होती। चेहरा भी यही सिंडिकेट तय करता है और मोहरे भी । सिंडिकेट का रिमोट दिल्ली से संचालित होता है। आश्चर्य यह है कि हर सियासतदां इस सिंडिकेट का हिस्सा बनना चाहता है।
आम आदमी की बात करें तो वह आदी हो चुका है।सरकार में भाजपा हो या कांग्रेस उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर कोई इससे वाकिफ है कि खनन, शराब, जमीन का कारोबार और सरकारी योजनाओं और ठेकों की बंदरबांट ही हर सरकार की प्राथमिकता रहती है। इससे आगे न उत्तराखंड की सियासत बढ़ती है और न सियासतदां ।
राज्य में पांचवी सरकार के लिए निर्वाचन है। चार निर्वाचित सरकारों में भाजपा और कांग्रेस दोनो को बराबर सरकार चलाने मौका मिला है। विडंबना यह है कि दोनो के कुल मिलाकर पांच ऐसी उपलब्धियां नहीं हैं जिनका सीधा सरोकार राज्य के भविष्य से जुड़ा हो । दोनो ही दल उत्तराखंड की सियासत के लिए दुशासन साबित हुए हैं ।