मैं पुरुष हूँ स्त्री को समझना नहीं चाहता हूँ





दीपक चौहान
पुरानी कहावत है कि स्त्री को ब्रह्मा जी नहीं समझ पाए। मैं पुरूष कैसे समझ पाऊंगा।…बस यह कहकर पल्ला झाड़ देना चाहता हूँ। जबकि स्त्री सरल हैं, कोमल हैं, कमजोर है, प्राकृतिक रूप से बच्चे पैदा करने का दर्द भी स्त्री के हिस्से आता है।
सोचती हूँ कभी की अगर यह दर्द पुरुषों के हिस्से आया होता तो क्या वो सृष्टी के निर्माण को गति प्रदान करते
क्यूँ औरते बार बार मृत्यु के दरवाजे पर जाकर आती है। एक बच्चे की खातिर अपना रूप यौवना सब गँवा देती है। परिवार की खातिर मर मिट जाती है। इस पर पुरुष पलट कर नहीं देखता उस स्त्री को जो उसके बच्चे की मां होती है। पुरुष अपनी संतान को प्रेम करता है। मगर अपनी पत्नी से अधिक प्रिय उसको समाज की तमाम स्त्री लगती है। अपनी प्रेयसी लगती है।
काश पुरुष अपने बच्चे की मां को अनमोल समझकर गले लगा लेता। उन तमाम औरतों से किनारा कर लेता। जो उसकी कुछ भी नहीं है। और दिन रात उसे यह एहसास करा देता की तुमने उसके बच्चे को जन्म देकर उपकार किया है। किन्तु होता इसका उल्टा है….
बात बात में नीचा दिखाना
तुम्हें यह नहीं आता तुम्हें वह नहीं आता…उसके हर शौक का उपहास उड़ाना। बात बात में उसकी तरफ उंगली उठाना… उसके शरीर में आए बदलाव का उपहास करना…पड़ोसी की पत्नी बेटी को बार-बार तकना ..मोबाइल में ..आती जाती लड़कियों को ताकना…सब समझती है स्त्री…मगर चुप रहती है…क्योंकि उसके सलमान शाहरुख आप ही हैं…
लगातार पुरुष से उपेक्षित स्त्री अपना मनोरंजन कहीं ओर खोजती है उसे अच्छे लगते हैं वो तमाम पुरुष जो उसकी तारीफें करते हैं..मुस्कुरा देती है स्त्री क्यूंकि वह इन पुरुषों की तारीफ का अर्थ भी बखूबी समझती है…
सरल सी स्त्री को कितना कठिन बना दिया पुरुष ने और उसी के माथे पर मटकी भी फोड़ दी कि स्त्री को समझना नामुमकिन है..स्त्री बस थोड़ा सा प्रेम उस पुरुष से पाना चाहती है जो उसका पति हैं प्रेमी हैं। कोई छल कपट नहीं चाहती। प्रेम में स्त्री भूख बर्दाश्त कर सकती है। किन्तु प्रेम का अभाव उसे तोड़ देता है। मुर्झा जाती है। स्त्री गुलाब की पंखुरियों की तरह…फिर कभी नहीं खिलती चाहें उसमें कितना भी पानी दो खाद दो ..वो साथ रहकर भी साथ नहीं होती….जिन्दा होती है मगर बस लाश नहीं होती..
बहुत कठोर है पुरुष जो स्त्री के कोमल मन को नहीं पहचान पाता…अभेद दुर्ग पुरुष होता है। जो बड़ी चालाकी से औरत को समझकर भी नहीं समझना चाहता…..काश पुरुष अपने अभेद दुर्ग से बाहर आकर स्त्री को समझ पाता…..



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