नवीन चौहान
कोरोना संक्रमण का सबसे घातक असर मीडिया जगत पर हुआ है। जनता की आवाज बनने का दावा करने वाले बड़े—बड़े अखबारों ने अपने ही संस्थान के पत्रकारों का गला घोंट रहे है। कुछ संस्थानों ने पत्रकारों का वेतन आधा कर दिया तो कुछ ने नौकरी से ही निकाल दिया है। हद तो तब हो गई जब अपने बच्चों और परिवार की खातिर पत्रकारों ने मीडिया घराने के मालिकों की तमाम ज्यादतियों के बाद भी नौकरी नहीं छोड़ी तो उनको संक्रमित इलाकों से विशेष कवरेज करने के लिए भेजना शुरू कर दिया। संक्रमित इलाकों में मौके पर जाकर स्टोरी कवर करने और वहां के फोटो, वीडियो बनाकर लाने से पत्रकारों में भी संक्रमण का खतरा बढ़ गया है। ऐसे में पत्रकार अपनी नौकरी बचाए या जान एक बड़ा सवाल बन गया है। फिलहाल इस मुश्किल वक्त में पत्रकार अपनी मजबूरी के चलते ही मालिकों की गुलामी करने को विवश है। लेकिन ये दौर पत्रकारों के मनोबल को तोड़ नहीं पा रहा है। पत्रकार अपनी जिम्मेदारी को पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ निभा रहे है।
22 मार्च 2020 को कोरोना संक्रमण का सबसे पहला असर लॉक डाउन के साथ शुरू हुआ। पूरे देश में लॉक डाउन हो गया। बाजार, व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद हो गए। विकास का पहिया थम गया। देश में त्राहिमाम मच गया। गरीब जनता भूखमरी के कगार पर पहुंच गई। ऐसे में जनता की समस्याओं और प्रशासनिक व्यवस्थाओं की तैयारियों को जनता तक पहुंचाने की जिम्मेदारी मीडिया पर आ गई। पत्रकारों ने इस जिम्मेदारी का बखूबी पालन किया। लॉक डाउन के बीच पत्रकारों ने पूरे उत्साह के साथ अपने—अपने क्षेत्रों की खबरों को प्रमुखता से लिखा और जनता की व्यवस्थाओं को बनाने और कोरोना संक्रमण से जागरूक करने में महती भूमिका अदा की। जनता ने वो खबर देखी जो मीडिया ने दिखाई। लेकिन इस खबर के पीछे की सबसे बड़ी खबर ये है कि गरीब जनता की समस्या को दूर करने वाले देशभर के तमाम पत्रकार मुसीबत के दौर से गुजरे। पत्रकारों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। बड़े—बड़े अखबार के मालिकों ने अपने पत्रकारों के वेतन में कटौती कर दी। कुछ मीडिया संस्थानों ने अपने कर्मचारियों को नौकरी से भी निकाल दिया। आपदा की घड़ी में काम करने वाले पत्रकारों को प्रोत्साहन राशि मिलने की जगह पर नौकरी से निकाले जाने का डर सताने लगा। मालिकों की चाकरी करने वाले संपादक पत्रकारों पर आंखे तरेरने लगे। पत्रकारों को संक्रमित क्षेत्रों में कवरेज करने के जोखिम भरे टास्क देने लगे। ऐसे में पत्रकारों ने हिम्मत नही हारी तो उनकी स्टोरियों को लेकर अपमानित किया जाने लगा। पत्रकारों का मनोबल तोड़ने का पूरा प्रयास किया। लेकिन साहसी पत्रकारों ने अपनी जान को जोखिम में डालकर संक्रमित इलाकों की खबरों को जुटाया और मालिेकों का पेट भरा। मालिकों ने संक्रमण के दौर में पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने का कार्य सौंप दिया। पत्रकारों ने इस कार्य को भी पूरा किया। नामी अखबारों के पत्रकार आपदा की इस घड़ी में विज्ञापन खोजने निकले। छपास के रोगियों ने पत्रकारों को विज्ञापन देकर उनकी इच्छाओं को पूरा किया। लेकिन जब पत्रकारों ने हिम्मत नहीं हारी तो मालिकों और चापलूस संपादकों का धैय जबाब देने लगा। आखिरकार मालिकों ने अखबार के पन्ने कम छापकर पत्रकारों को नौकरी से निकालने का रास्ता बना दिया। पत्रकारों की मामूली गलती पर अपमानित कर नौकरी छोड़ने को विवश कर दिया। कुल मिलाकर देखा जाए तो कोरोना का सबसे घातक असर पत्रकारों पर पड़ा। ये तो वो पत्रकार है तो नामी अखबारों और टीवी चैनलों और नामी पोर्टल में सबसे पहले खबर भेजकर खुद को बड़ा पत्रकार बताकर खुश होते थे। वहीं दूसरी ओर मध्यम वर्गीय दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक अखबारों और न्यूज पोर्टल के पत्रकारों की स्थिति तो उनसे भी ज्यादा दयनीय रही। सरकार की ओर से कोई विज्ञापन नही दिया गया। सरकार ने विज्ञापन दिया तो भुगतान नही किया गया। पत्रकारों के लिए विज्ञापन के दरवाजे बंद हो गए। परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हो गया। अपने संबंधों के आधार पर इन पत्रकारों ने दोस्तों से मदद लेकर तीन महीने का मुसीबत का दौर गुजारा। हालांकि संकट के बादल अभी मंडरा रहे है। लेकिन मजाल है कि सरकार ने पत्रकारों की कोई सुध ली हो। आखिरकार पत्रकार एक विशेष सम्मानित श्रेणी है। पत्रकारों का पेट सम्मान से ही भर जाता है। पत्रकार लोकतंत्र का चौथा कहे जाने वाला सबसे मजबूत लेकिन भीतर से खोखला स्तंभ है। जिसकी वास्तविक हकीकत कोरोना काल में दिखाई पड़ी है।