नवीन चौहान
पूर्व मुख्यमंत्री हिटलर की तरह बर्ताव करते थे। विधायकों और कार्यकर्ताओं की बातों को अनसुना करते थे। जिलाधिकारियों की शिकायत जब तत्कालीन मुख्यमंत्री से की जाती थी तो वह जिलाधिकारियों को कुछ बोलने को तैयार नही थे। नौकरशाहों पर पूरी स्वतंत्रता दी हुई थी। अफरशाही बेलगाम हो चुकी थी। जिसके चलते विधायकों और कार्यकर्ताओं में आक्रोष निरंतर बढ़ता जा रहा था। 57 में से 54 विधायक उनसे बुरी तरह से नाराज हो चुके है। यही कारण रहा कि नेतृत्व परिवर्तन की आवाज बुलंद की गई और त्रिवेंद्र को बदलने में सफलता पाई।
जी हां ये भाजपा के झबरेड़ा क्षेत्र के एक भाजपा कार्यकर्ता का कथन है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले भाजपा कार्यकर्ता ने अपने पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के बारे में कुछ इस तरह की सोच बनाई हुई है। जिसका प्रचार भाजपा कार्यकर्ता बीते चार सालों से जनता के बीच करते रहे है। भाजपा कार्यकर्ताओं और विधायकों ने पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की ईमानदारी और जनहित के कार्यो को कभी जनता से नही गिनाया और ना ही जनता को बताया। तो क्या यह समझा जाए कि त्रिवेंद्र सिंह रावत को ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ी। विधायकों की नाराजगी को दूर करने की वजाय भाजपा हाईकमान ने नेतृत्व परिवर्तन को ही सबसे अच्छा विकल्प माना। त्रिवेंद्र की चार साल की ईमानदारी का ईनाम उनको अपनी कुर्सी से विदाई के रूप में मिला। नेतृत्व परिवर्तन के पीछे उपजे विवाद को समझने की जरूरत है।
हरिद्वार के एक भाजपा कार्यकर्ता ने पूर्व मुख्यमंत्री को बदलने के पीछे का सबसे बड़ा कारण भाजपा विधायकों और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को ही सबसे बड़ा कारण बताया। सत्ता में रहते हुए भी भाजपा कार्यकर्ताओं को उचित सम्मान नही मिल रहा था। कार्यकर्ता घुटन में थे। पूर्व मुख्यमंत्री अपने कुछ चहेतों की ही सुनते थे। उनके इशारे पर ही कार्य करते थे। संघ के लोग भी परेशान हो चुके थे। संघ के लोग जब मिलने जाते थे। तो उनको कई—कई घंटे इंतजार करना पड़ता था। पूर्व सीएम ने अपनी मनमर्जी चलाई। जिसका खामियाजा उनको कुर्सी से विदाई के रूप में भुगतना पड़ा। उन्होंने राज्यमंत्री बनाने के पीछे भी लेनदेन का खेल किया। जब लेनदेन की बात आई तो उनसे पूछा कि राज्यमंत्री बनाने मे किसने लेनदेन किया तो कोई जबाव उनके पास नही था।
जब भाजपा कार्यकर्ता से पूछा गया कि प्रदेश में ईमानदार जिलाधिकारियों की नियुक्ति उनकी कार्यक्षमता के पैमाने के आधार पर की गई है। किसी डीएम की पोस्टिंग सिफारिशों के आधार पर नही की गई है। माफियाओं की सचिवालय में एंट्री बंद थी तो आपका क्या कहना है। तब भाजपा कार्यकर्ता की बोलती बंद हो गई थी। भाजपा कार्यकर्ता ने चुप्पी साध ली।
जी हां यही वह हकीकत और वास्तविकता है जो भाजपा कार्यकर्ताओं को रास नही आ रही थी। त्रिवेंद्र सिंह की ईमानदारी भाजपा कार्यकर्ताओं और विधायकों के लिए मुसीबत बन चुकी थी।
अगर त्रिवेंद्र सरकार के चार साल के कार्यकाल की बात करें तो प्रदेश में गरीबों की जमीनों पर माफियाओ के कब्जे पूरी तरह से बंद हो चुके थे। खनन माफिया और तमाम माफिया लॉबी त्रिवेंद्र सिंह रावत की ईमानदारी से परेशान हो चुकी थी। सच तो यह है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत ने विधायकों के किसी भी गलत कार्य की मंजूरी अपने कार्यकाल में नही दी। त्रिवेंद्र कभी विचलित नही हुए। उनको अपनी ईमानदारी पर गर्व रहा। उत्तराखंड की मिट्टी के प्रति उसकी वफादारी भाजपा का गौरव जरूर बढ़ायेगी।
भाजपा कार्यकर्ता जिस तरह का गलत प्रचार अपने पूर्व सीएम त्रिवेंद्र के बारे में जनता के बीच करते है। इसका नुकसान भी भाजपा को उत्तराखंड की सत्ता गंवाकर ही चुकाना पड़ेगा। एक सच यह भी है कि ईमानदार त्रिवेंद्र भाजपा हाईकमान के प्रिय भी बन चुके है। भाजपा संगठन के प्रति उनकी निष्ठा मुख्यमंत्री की कुर्सी से कही अधिक बड़ी है। सीएम की कुर्सी तो महज एक जिम्मेदारी थी। जिस पर बैठने के बाद उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया।
त्रिवेंद्र सिंह रावत को कम बोलने की आदत है। लेकिन किसी भी कार्य को करने की गंभीरता को वह बखूवी समझते है। यही कारण रहा कि घस्सियारी योजना तक लागू कराई और महिलाओं को पैतृक संपत्ति में सहखातेदार बनाया।
त्रिवेंद्र की भावुकता और ईमानदारी के किस्से तो बहुत है। लेकिन विधायकों के अपने मंसूबों को पूरा ना हो पाने के कारण नेतृत्व परिवर्तन का उदाहरण भी उत्तराखंड की जनता ने देख लिया है। त्रिवेंद्र ने बीते चार सालों में कोई व्यक्तिगत हित नही साधा। यही उनकी ईमानदारी का सबसे बड़ा प्रमाण भी है।