नवीन चौहान
कोरोना संक्रमण ने भारतवासियों को जहां तमाम तरीके की मुसीबते दी है। वही स्कूली बच्चों को आन लाइन एजूकेशन का तोहफा भी दिया है। भारत के स्कूलों में आन लाइन शिक्षा का आगाज हो चुका है। जो प्रक्रिया करीब पांच साल बाद शुरू होनी थी। वह वर्तमान में शुरू हो चुकी है। भारत के तमाम स्कूली बच्चे आन लाइन एजूकेशन में पढ़ाई करने लगे है। इसका श्रेय स्कूल संचालकों को मिलना चाहिए। लेकिन हालात ये है स्कूल संचालकों और शिक्षकों को अभिभावकों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ रहा है। अभिभावक आन लाइन एजूकेशन को फीस वसूली का माध्यम मानकर विरोध कर रहे है। ऐसे में आन लाइन एजूकेशन के शिक्षण सामग्री तैयार कर रहे शिक्षकों का मनोबल कमजोर पड़ रहा है। जबकि स्कूल संचालक आर्थिक संकट के दौर में बुरी तरह घिर चुके है। आर्थिक रूप से सक्षम अभिभावकों ने भी स्कूल फीस ना देने की जिदद पकड़कर शिक्षा तंत्र के प्रति अपनी सोच का परिचय दे दिया है।
कोरोना संक्रमण ने भारत की आर्थिक स्थिति और मनुष्य की सोच को दर्शाया है। एक महीने के लॉक डाउन अवधि में भी भारत भूख से त्राहिमाम करने लगा। गरीब जनता को एक वक्त की रोटी के लाले पड़ गए। केंद्र सरकार को खुद जनता से पीएम केयर फंड में दान देने की अपील करनी पड़ी। वही सामाजिक संस्थाओं की मदद से गरीबों के लिए राशन और भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी। लेकिन कोरोना संक्रमण काल में भारत के लोगों को तो इससे आगे भी बहुत कुछ देखना था। वह था मनुष्य की सोच को। जी हां इस कोरोना संक्रमण काल में जब देश विपरीत परिस्थितियों से था। जब निजी स्कूलों ने बच्चों को किताबों से जोड़कर रखने का साहस दिखाते हुए आन लाइन पढ़ाई की व्यवस्था शुरू की। देशभर के तमाम निजी स्कूलों ने अपने शिक्षकों को हाईटेक तरीके से शिक्षण सामग्री अपने स्टूडेंट तक भेजने का कार्य शुरू किया। निजी स्कूलों की इस मुहिम की जहां सराहना होनी चाहिए थी वही दूसरी ओर अभिभावकगण स्कूलों के विरोध में आ गए। उन्होंने आन लाइन पढ़ाई को फीस वसूली का हथकंडा मानते हुए आपत्ति करनी शुरू कर दी। शिक्षकों का मनोबल घटाने के लिए निजी स्कूलों को लुटेरा कहा जाने लगा। हद तो जब हो गई जब रसूकदार और सरकारी नौकरी पेशा लोगों ने अपने बच्चों की स्कूल फीस देने तक से इंकार कर दिया। गरीब व मध्यमवर्गीय परिवार तो आर्थिक संकट के दौर में फंसे थे। लेकिन रसूकदारों को आपदा की घड़ी में धींगा मश्ती सूझने लगी। कोरोना संक्रमण काल में सबसे बड़ी बात ये रही कि निजी स्कूलों में एडमिशन कराने को लेकर ऊंची—ऊंची सिफारिशे कराने वाले अभिभावकों ने स्कूलों की ओर से मुंह मोड़ लिया। किसी भी देश के भविष्य का निर्माण स्कूलों से ही होता है। शिक्षित बच्चे ही श्रेष्ठ नागरिक बनकर एक मजबूत और सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण करते है। इन बच्चों को श्रेष्ठ बनाने का कार्य करने वाले निजी स्कूल और उनके शिक्षकों के प्रति हमारी सोच किस प्रकार की है। इसकी बानगी कोरोना संक्रमण काल में देखने को मिली। आन लाइन युग का आगाज कर चुके स्कूल बच्चों से जुड़े है। लेकिन अभिभावकों ने अपनी निजी स्कूलों के प्रति अपनी मानसिकता को दर्शा दिया है। आखिरकार हम अपनी सोच को कब और कैसे बदलेंगे। जबकि होना ये चाहिए था कि संपन्न अभिभावकों को अपने बच्चों के स्कूल के प्रति सकारात्मक भाव रखकर उनकी फीस को जमा करते। खैर ये तो सभी की अपनी सोच पर निर्भर करता है। लेकिन गुरू को भगवान समझने वाले अभिभावक स्कूलों को दुकान समझने लगे ये कोरोना संक्रमण काल ने बता दिया। हालांकि शिक्षक तो अपने बच्चों से आन लाइन जुड़ ही चुके है। बस अभिभावकों को अपना बड़ा दिल दिखाने की जरूरत है।