बेटी तेरी यही कहानी: दिल में दर्द और आंखों में पानी, सिसकती जिंदगानी





नवीन चौहान
पुरूष को जन्म देने वाली औरत की जिंदगी में दर्द के अलावा कुछ नही होता। औरत के चरित्र पर हमेशा संदेह के बादल मंडराते रहते है। पिता का घर हो या पति का घर औरत को अपनी इच्छाओं का दमन करना होता है। 21वीं सदी के भारत में औरत को स्वतंत्रता देने की बात होती है। लेकिन हकीकत यह है कि भारत में 85 फीसदी महिलाओं घुटन में जिंदगी का एक—ए​क दिन गुजारती है। पिता, पति और बच्चों की फटकार को सहने के बाद एक दिन इस दुनिया से विदाई ले लेती है। कमोवेश औरतों का यह हाल भारत में ही है। जिस भारत देश में महिलाओं को समान अधिकार, संस्कृति और परंपराओं का हवाला दिया जाता है। अगर कोई महिला अपनी बात को खुलकर व्यक्त कर देती है तो उसके लिए अपशब्दों की झड़ी लग जाती है। सोशल मीडिया के युग में महिलाओं को आज भी अपनी स्वतंत्रता पर बंधन है।
भारत में मध्यमवर्गीय या गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को समझा जाए तो आज भी बहुत दयनीय है। एक मध्यम वर्गीय घर में जन्म लेने वाली बालिका को पिता के घर में भाई के बीच के अंतर को महसूस कराया जाता है। बेटी और बेटे के भेद को बारीकी से समझाया जाता है। बेटे की जहां सभी इच्छाओं को पूरा किया जाता है वही बेटी की इच्छाओं का दमन किया जाता है। बेटियों को पराया धन होने की सीख बचपन से ही उसके दिमाग में बैठाने का प्रयास किया जाता है। बेटे को खिलौने तो बेटियों को भाई के टूटे फूटे सामान से ही खेलने की अनुमति होती है। जन्म से 10 साल की आयु तक बालिका को अपने भाई के बीच के अंतर को महसूस करा दिया जाता है। बेटे का परिचय घर के चिराग के रूप में तो बेटिया पराये धन के नाम से ख्याति अर्जित करने लगती है। जब बात शिक्षा की आती है तो बेटे की तुलना में बेटियों के बढ़ते कदमों पर ब्रेक लगाने का प्रयास किया जाता है। बेटियों को खुलकर खेलने और बोलने तक की आजादी नही होती। घुटन का यह सिलसिला यही से शुरू होता है। मासूम सी दिखने वाली बच्ची के चेहरे की मुस्कराहट दम तोड़ने लगती है। बच्ची सिसकने लगती है। लेकिन उसकी आंखों के आंसू पिता, भाई और मां को दिखाई नहीं देते। बेटियां सिसकने लगती है। परिवार के अनुरूप ही अपने को ढालने का प्रयास करने लगती है। पिता और मां की बात को सर्वोपरि मानते हुए उनके सम्मान को बरकरार रखने की जिम्मेदारी संभाल लेती है।
मां बाप के सम्मान की जिम्मेदारी बेटी को मिल जाती है और बेटों को मिल जाते है अधिकार। एक मध्यमवर्गीय परिवार में बेटों को पूरी स्वतंत्रता मिल जाती है। दोस्तों के साथ पार्टी करना, घूमना फिरना और अपनी इच्छाओं के अुनसार जिंदगी का फैसला करने का अधिकार। लेकिन बात बेटियों की करें तो पिता की सामथ्र्य पर टिकती है। बेटों के लिए संपत्ति अर्जित करने वाला परिवार अब बेटियों की शादी में देने वाले उपहार को दहेज रूपी कर्ज समझने लगता है। पिता अपनी इच्छानुसार बेटी के लिए वर का चयन करता है। यहां पर भी बेटी को अपनी ससुराल और ससुराल के लोगों को समझने का अवसर प्रदान नही होता। पिता का घर पराया और ससुराल बेटी का घर बन जाता है। भारत में मध्यमवर्गीय परिवार में बेटियों की आयु 20 साल होने के बाद बेटी का दूसरा जन्म ससुराल में होता है। ससुराल के संस्कार ठीक है तो एक बेटी से बहु के रूप में जीवन की नई शुरूआत करने वाली औरत की जिंदगी शुरू होती है। यहां पति और उनके परिवार को अपना परिवार मानने का सबसे बड़ा कार्य एक औरत ही कर सकती है। एक संस्कारी बहू के तौर पैर छूने से लेकर सास ससुर, देवर, ननद और इस परिवार में शामिल होने वाले सभी सदस्यों की सेवा करने का उत्तरदायित्व बहू को मिल जाता है। लेकिन बहू की आजादी, मुस्कराहट और जीने की चाहत ससुराल के इन सभी लोगों पर निर्भर करती है। ससुराल के सभी लोग मुस्कराने का मौका देंगे तो वह मुस्करायेगी। अगर नही तो वह चुपचाप गुमसुम परिवार के​ लिए रोटियां बनायेगी।
औरत की जिंदगी में तीसरा सबसे बड़ा बदलाव ससुराल को वारिश देने पर आता है। एक बहू को अब मां बनने के किरदार को निभाना है। यहां पर भी दो बाते होगी। बेटे को जन्म देगी या बेटी को। एक औरत की जिंदगी में यह सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन का दौर होता है। जब औरत को अपनी ससुराल के लिए बेटे के रूप में वारिश देना होता है। अगर बेटी को जन्म दिया तो सास, ससुर और पति का नया अवतार देखने को मिलेगा। बेटा हुआ तो ससुराल खुश हो जायेगी। बेटी हुई तो ससुराल में औरत की जिंदगी में बदहाल होना तय है। बच्चों की परिवरिश में जुटी महिला अपने बारे में सोचने का वक्त तक नही निकाल पाती। एक औरत को अपनी ससुराल में सभी को संतुष्ट करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी और उनका सम्मान बरकरार रखने का उत्तरदायित्व होता है। औरत की शिक्षा और प्रतिभा घर की चार दीवारी में रसोई, झाडू लगाने, वर्तन धोना, खाना पकाने और कपड़े धोने तक ही सीमित हो जाती है। इन पांच कार्यो से इतर कोई भी कार्य औरत को करने की इजाजत नही होती। अपने पति से वैचारिक तालमेल बनाने की जिम्मेदारी औरत की होती है। पति से मनमुटाव हुआ तो पति को मनाने की जिम्मेदारी औरत की ही होती है।
पिता, भाई, पति, सास, ससुर और बच्चों के इन तमाम रिश्तों की अग्निपरीक्षा में खुद को साबित करती एक औरत की यही जिंदगी है। उसके दिल में असीम दर्द छिपे होते है। लेकिन वह अपना दर्द बयां नही कर सकती है। इन तमाम रिश्तों के बीच में एक चुलबुली, हंसने खेलने वाली बच्ची, बचपन में सबको अच्छी लगने वाली बच्ची दर्द दिल में समाकर दुनिया से विदाई ले लेती है। औरत की मासूमियत और उसके दिल के दर्द भी उसी के साथ दफन हो जाते है।



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