रोगों से बचाव के लिए जरूरी है नाभि चक्र का सही होना




नवीन चौहान.
आज की जीवन-शैली कुछ इस प्रकार की है कि भाग-दौड़ के साथ तनाव-दबाव भरे प्रतिस्पर्धापूर्ण वातावरण में काम करते रहने से व्यक्ति का नाभि- चक्र निरंतर क्षुब्ध बना रहता है। इससे नाभि अव्यवस्थित हो जाती है। परिणाम ये होता है कि पेट दर्द , पेचिस -पतले दस्त, पेट फूलना -अरूचि -हरारत आदि होता है। जब तक इसे अपने नियत स्थान पर पुन: स्थापित नहीं कर दिया जाये रोगी का आराम नहीं होता है और लापरवाही करने पर ये हमेशा के लिए अपनी जगह बना लेता है। नाभि पुरुषो में बायीं तरफ और स्त्रियों में दायी ओर टला करती है।

योग में नाड़ियों की संख्या बहत्तर हजार से ज्यादा बताई गई है और इसका मूल उदगम स्त्रोत नाभिस्थान है। कई बार नाभि के टल जाने पर भी कब्ज की शिकायत हो जाती है। जब तक नाभि टली है, तब तक कब्ज ठीक नहीं हो सकता। इसके लिए हमें सबसे पहले अपनी नाभि की जांच करवा लेनी चाहिए। अगर नाभि स्पंदन केंद्र (Center) से खिसक गई है तो उसे टली नाभि कहते हैं। इसके सही जगह में आते ही कब्ज की परेशानी दूर हो जाती है।

नाभि  में लंबे समय तक अव्यवस्था चलती रहती है तो उदर विकार के अलावा व्यक्ति के दाँतों, नेत्रों व बालों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। दाँतों की स्वाभाविक चमक कम होने लगती है। यदाकदा दाँतों में पीड़ा होने लगती है। नेत्रों की सुंदरता व ज्योति क्षीण होने लगती है। बाल असमय सफेद होने लगते हैं। आलस्य, थकान, चिड़चिड़ाहट, काम में मन न लगना, दुश्चिंता, निराशा, अकारण भय जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों की उपस्थिति नाभि चक्र की अव्यवस्था की उपज होती है।

यदि नाभि का स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है अर्थात छाती की तरफ तो अग्नाशय खराब होने लगता है। इससे फेफड़ों पर गलत प्रभाव होता है। मधुमेह, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए तो पतले दस्त होने लगते हैं। बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कफ-जनित रोग जल्दी-जल्दी होते हैं। दाहिनी तरफ हटने पर लीवर खराब होकर मंदाग्नि हो सकती है। पित्ताधिक्य, एसिड, जलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं। इससे सूर्य चक्र निष्प्रभावी हो जाता है। गर्मी- सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है। मंदाग्नि, अपच, अफरा जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। ऐसी अवस्था में मरीज कितना भी इलाज़ करवा लें ठीक नही होता। इसलिए कोई भी बीमारी होने पर स्वर और नाभि की जाँच अवश्य करनी चाहिए।

नाभि टलने से होने वाली समस्याएं
जिस प्रकार कार का अलाइनमेंट बिगड़ने से गाड़ी ठीक नही चल सकती, गाड़ी टायर को ख़राब कर देती है उसी प्रकार नाभि टलने से मनुष्य बिमारियों से घिर जाता है, पेट साफ न होना, लगातार कब्ज बने रहना, मुँह में लगातार छाले होना, चेहरे पर रुखापन, पेट में गैस बनना, महिलाओं को मासिक संबंधी दिक्कत, चेहरे पर झाइयां, काले धब्बे, बालों का रूखापन, बाल लगातार झड़ना, गले में टॉन्सिल तथा थाइराइड की समस्या आदि। यदि नाभि की समस्या ज़्यादा दिन तक बनी रहे तो महिला गर्भ धारण नही कर सकती। सबसे खतरनाक बात ये है कि यदि नाभि विचलन है तो कोई भी दवा किसी भी रोग में असर नही कर सकती। इसलिए आयुर्वेद में सबसे पहले मरीज की नाभि जाँच की जाती है। समय रहते इसका उपचार अवश्य कर लेना चाहिए।

नाभि का टलना/हटना
नाभि का अपने स्थान से हट जाना, मानव शरीर में अस्वस्थता पैदा कर, कई प्रकार की शारीरिक व्याधियां उत्पन्न करता है, जिनका समाधान नाभि को पुनः यथास्थान पर ला कर ही होता है, औषधियों से नहीं। इस रोग को नाभि खिसकना, नाभि चढ़ना, धरण का टलना आदि नामों से जाना जाता है। शिशु रूप में जब मानव गर्भावस्था में होता है, तब नाभि ही एकमात्र वह मार्ग होता है, जिसके माध्यम से वह अपनी सभी महत्त्वपूर्ण क्रियाओं, जैसे सांस लेना, पोषक तत्वों को ग्रहण करना तथा व्यर्थ और हानिकारक पदार्थों का निष्कासन करता है। जन्मोपरांत शिशु के गर्भ से बाहर आते ही सबसे पहला कार्य उसकी नाभि और मां के प्लेसेंटा का संबंध विच्छेदन करना तथा शिशु की नाभि- रज्जू को कस कर बांधना होता है।

उदर और आंतों से संबंधित रोगों में, जैसे कब्ज और अतिसार आदि का जब सभी प्रकार के निरीक्षण करने पर भी रोग के कारण मालूम न हों, मल-परीक्षण करने से भी किसी जीवाणु का पता न चले, रोगी में पाचक रस, पित्त और पुनःसरण गति सामान्य हो, लेकिन उसके उदर के शारीरिक परीक्षण में नाभि पर धमनी की तीव्र धड़कन महसूस न हो कर उससे कुछ हट कर प्रतीत होती हो, जबकि सामान्य अवस्था में यह धड़कन नाभि के बिल्कुल मध्य में महसूस होती है, रोगी के हाथ की दोनों कनिष्ठा अंगुलियों की लंबाई भी समान न हो कर कुछ छोटी-बड़ी मालूम होती हो, जबकि सामान्य और स्वस्थ व्यक्ति में कनिष्ठा अंगुलियों की लंबाई एक समान ही होती है, तो कुछ विशेष प्रयासों के द्वारा जब नाभि के केंद्र को उसके केंद्र में पुनः स्थापित कर दिया जाता है, तो रोगी को, बिना किसी औषधि उपचार से, इन रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

नाभि चढ़ना, नाभि खिसकना, धरण का टलना आदि नामों से जाने जाने वाले रोग का सबसे प्रमुख लक्षण तो यही है कि नाभि अपने केंद्र में न हो कर उसके आसपास होती है, जिसके कारण आंत में मल सामान्य गति से आगे नहीं बढ़ता और आंत में अस्थायी अवरोध आ जाने से व्यक्ति को कब्ज रहने लगती है, अंतड़ियों में मल जमा होने लगता है। इसी कारण नाभि का स्थान स्पर्श करने से कठोर प्रतीत होता है।

साभार: डॉ. (वैद्य) दीपक कुमार
आदर्श आयुर्वेद फार्मेसी, कनखल



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