उत्तराखंड की राजनीति में त्रिवेंद्र रावत बनना आसान नहीं, देंखे वीडियो




नवीन चौहान
उत्तराखंड की राजनीति में ​त्रिवेंद्र सिंह रावत बनना आसान नही है। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर सुशासन की दिशा में कदम बढ़ाना। जीरो टालरेंस की मुहिम को शुरू करने से लेकर मितव्ययता से प्रदेश को चलाना। राजनीति में नीति से चलने का मार्ग प्रशस्त करना। गरीब जनता के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं को लागू कराना। ईमानदार अफसरों की जनपदों में नियुक्ति करना। ट्रांसफर पोस्टिंग के खेल में दलाली पर पूरी तरह से अंकुश लगाना। माफियाओं के मंसूबों को ध्वस्त करना। गरीबों की जमीन को माफियाओं की गिद्धदृष्टि से सुरक्षित रखना। सरकारी फाइलों के नजराने को दरकिनार कर जनहित के निर्णय में दूरदर्शिता से योजनाओं का क्रियान्वन करना। अपने ही विधायकों और मंत्रियों से नाराजगी मोल लेना। लेकिन जनता की तकलीफों को दूर करने का साहसिक कार्य सिर्फ त्रिवेंद्र सिंह रावत ही कर सकते है।

कलयुगी युग में ईमानदारी की बात करना बेमानी है। जिस दौर में इंसान एक दूसरे संबंध में नफा नुकसान देखकर ही बनाना है। रिश्तों की नींव में स्वार्थ का खाद पानी डाला जाता है। रिश्ते मजबूत होंगे तो स्वार्थ की पूर्ति करके अपने मंसूबों का पूरा करना ही कलयुगी इंसान की पहली सोच रहती है। ऐसे युग में एक व्यक्ति जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चार साल तक बैठा हो। राजसी सुखों को छोड़कर गरीबों के हितों के बारे में सोचना हो। भ्रष्टाचार को दूर करने की दिशा में जीरो टॉलरेंस की मुहिम से शुरूआत करने की दूर​दर्शिता रखना हो। ऐसे इंसान के व्यक्तित्व को समझना जरूरी है। जिसका चार साल का कैरियर बेदाग हो। विपक्षी भी जिसकी तारीफ करते हो। लेकिन अपना ही कुनबा नाराज हो। कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व त्रिवेंद्र सिंह रावत का रहा। बेहद की कम बोलने की आदत और घोषणाओं को पूरा करने का दृढ़ विश्वास उनके इरादों को मजबूत करता है।
बात करते है साल 2017 की। जब भाजपा प्रचंड बहुमत से उत्तराखंड की सत्ता में आई तो 70 में से 57 विधायक भाजपा के सदन में पहुंचे। भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डबल इंजन लगाने की अपील उत्तराखंड की जनता से की थी। उत्तराखंडियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निराश नही किया। भाजपा को सत्ता सौंप दी। प्रधानमंत्री ने मुखिया की कुर्सी संघ की पृष्ठभूमि से जुड़े त्रिवेंद्र सिंह रावत को दी।
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज त्रिवेंद्र सिंह
रावत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपेक्षा के अनुरूप कार्य किया। मोदी के विश्वास की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरे। ईमानदारी से सुशासन और विकास कार्यो को मूर्तरूप दिया। ​केंद्र सरकार के मार्गदर्शन में ही प्रदेश की सरकार को गति प्रदान की गई। लेकिन बीते चार सालों में कई बार सियायी उलटफेर की बातें आई। मुख्यमंत्री बदलने की अटकलों को हवा दी गई। इसकी सबसे बड़ी वजह मंत्रीमंडल का विस्तार ना हो पाना भी रही। विधायकों को लगता था कि त्रिवेंद्र सिंह रावत मंत्री बनाना नही चाहते। जबकि हकीकत यह रही कि भाजपा हाईकमान की ओर से मंत्रीमंडल का विस्तार करने को लेकर हरीझंडी ही नही मिली। 57 विधायकों के कुनबे से तीन मंत्रियों को बनाकर एक बड़ी टूट की आशंका बनी हुई थी। त्रिवेंद्र सिंह रावत विधायकों को साधते हुए प्रदेश में विकास की पटकथा तैयार कर रहे थे। लेकिन भाजपा में भीतर ही भीतर चिंगारी सुलग रही थी। वही दूसरी ओर त्रिवेंद्र की ईमानदारी विधायकों के आड़े आ रही थी। प्रदेश की सत्ता में होने के बाबजूद विधायकों की मनमानी नही हो रही थी। त्रिवेंद्र फाइलों के पीछे ​नजराने की परख करते थे। त्रिवेंद्र की यह बात विधायकों को चुभती थी। आखिरकार विधायकों ने चक्रव्यू बनाया और त्रिवेंद्र को फंसाकर कुर्सी खिसका दी। त्रिवेंद्र रावत को कुर्सी जाने का मलाल कोई मलाल नही है। उनको तकलीफ इस बात से है कि चार सालों के तमाम विकास कार्यो के बाबजूद भाजपा को आगामी चुनाव में संकट के दौर से गुजरना होगा। त्रिवेंद्र की बात करें तो वह साल 2022 के चुनाव में भाजपा को सत्ता दोबारा दिलाने में सफल रहते। लेकिन वर्तमान हालात को सल्ट के उपचुनाव में भाजपा की हालत पतली​ दिखाई पड़ रही है।
उत्तराखंड की जनता त्रिवेंद्र सिंह रावत की ईमानदारी को तो याद कर रही है। ईमानदारी की कीमत त्रिवेंद्र की विदाई के रूप में जनता ने देख लिया। भाजपा के नए मंत्री स्वागत में व्यस्त है। लेकिन हकीकत में भाजपा सरकार से बेदखली की ओर बढ़ रही है।
वर्तमान मुख्यमंत्री ​तीरथ सिंह रावत को बड़ी चुनौती मिली है। कांटो का ताज उनके सिर सजा है। उप चुनाव की अग्निपरीक्षा है। खुद ही विधानसभा का चुनाव लड़ना है। भाजपा के नाराज विधायको के मंसूबों को समझना होगा। ​तीरथ सिंह रावत को त्रिवेंद्र के फैसलों को पलटने से ज्यादा ताकत विकास के विजन को आगे बढ़ाकर चलने की रखनी होगी। त्रिवेंद्र कार्यकाल में किए जाने वाले कार्यो की सूची को अपनी सूची में शामिल करना होगा। लेकिन भाजपा की वर्तमान स्थिति में ​तीरथ के लिए धर्मसंकट हो गया है। वह त्रिवेंद्र को साथ लेते है तो विधायकों की नाराजगी बरकरार रहेगी। अगर त्रिवेंद्र से दूरी रखेगे तो भाजपा को चुनाव में कठिन चुनौती होगी।
वैसे भी नौकरशाही से लेकर तमाम विकासकार्यो को त्रिवेंद्र भली भांति समझ चुके थे। लेकिन तीरथ जी अब आपके पास विभागों की समीक्षा करने का वक्त भी कम है। ऐसे में संगठन, विधायक, जनता को साधकर रखना होगा। स्वार्थी लोगों से दूरी बनाकर रखनी होगी। तभी आप भाजपा के सम्मान को बरकरार रख पायेंगे और नेतृत्व परिवर्तन का निर्णय सही साबित कर पायेंगे। अन्यथा त्रिवेंद्र को बदलना भाजपा हाईकमान की सबसे बड़ी भूल साबित होगी।



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