मोदी जी बिना काम के नही मिलता वेतन, जानो गरीबों का हाल




नवीन चौहान
कोरोना संक्रमण काल की सबसे ज्यादा प्राइवेट संस्थानों में काम करने वाले लोगों पर पड़ी है। इन लोगों को पिछले दो माह से वेतन तक नहीं मिला है। घर की सब्जी तक खरीदने के लिए पैंसे तक नही है। इससे ज्यादा परेशानी की बात क्या होगी कि परिचितों ने इस आपदा काल में उधार तक देना मुनासिब नही समझा। आखिरकार ऐसे तमाम लोग जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर हो चुके है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कंपनी मालिकों और प्रतिष्ठान स्वामियों से की गई अपील बेमानी साबित हुई। गरीबों को अपनी बेबसी के सहारे ही जीना पड़ा।
चीन के बुहान से भारत पहुंचा कोरोना संक्रमण मुसीबत लेकर आया। एक तरह तो जिंदगी को सुरक्षित बचाकर रखने की चुनौती मिली तो दूसरी ओर पेट की आग बुझाने के लिए मुसीबतों का दौर रहा। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 मार्च 2020 को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए पूरे देश में लॉक डाउन घोषित कर दिया। सभी व्यवसायिक प्रतिष्ठान बंद हो गए। सभी कामगार अपने घरों में बंद हो गए। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी प्रतिष्ठान मालिकों से एक मार्मिक अपील करते हुए अपने कर्मचारियों को वेतन देने की गुजारिश की। लेकिन ये अपील महज एक संदेश बनकर रह गई। किसी प्रतिष्ठान मालिक का दिल नही पसीजा। कुछ प्रतिष्ठान स्वामियों को छोड़ दे तो अधिकतम ने अपने कर्मचारियों को वेतन नही दिया। इन कर्मचारियों के परिवार की स्थिति का अंदाजा लगाना बेहद ही कठिन है। किस मुश्किल भरे दौर से इनका जीवन गुजरा होगा। आज के वक्त में बिना पैंसे के कुछ भी संभव नही है। जहां राशन की व्यवस्था सरकार की ओर से की गई तो वह भी हर किसी के घर नही पहुंचा। वहां भी जनप्रतिनिधियों ने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर कार्य किया। लेकिन हम तो यहां उन लोगों की बात कर रहे है उन लोगों का वेतन देने की बात मोदी जी ने की थी। मोदी जी जरा इस बात की भी जांच कराने की जरूरत है कि कितने कंपनी और प्रतिष्ठान मालिकों ने अपने कर्मचारियों को लॉक डाउन अवधि में वेतन दिया था। जांच कराकर देखों हकीकत सामने आ जायेगी। लॉक डाउन की इस अवधि ने गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की हालत बुरी कर दी है। दो वक्त की रोटी के लिए इन लोगों को कितनी मुसीबते उठानी पड़ी। शायद ये अंदाजा लगाना सरल नही होगा। साहब पेट की आग बड़ी खराब होती है। काश इन परिवारों के दर्द को सरकार समझ पाती। एक तरफ तो नौकरी खो जाने के डर से मालिक के खिलाफ कोई मुंह खोलने को तैयार नही है। वही दूसरी ओर खाली जेब दुकानदार राशन देने को तैयार नही है। ऐसे में मजबूर बेबस इंसान एक बार फिर काम करने के लिए तैयार बैठा है। शायद 52 दिनों के लॉक डाउन के बाद इस बात का अंदाजा सरकार को भी लग गया कि कोरोना का संक्रमण पेट की आग से खतरनाक नही है। लोग भुखमरी से जान गवां दे इससे अच्छा है कि वह सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए कार्य करें। शायद यही सोचकर सरकार लॉक डाउन—4 में कुछ ढील करने का मन बना चुकी है। कम से कम भारत के इतिहास यह बात तो नही आयेगी कि लोग भुूख से मर गए। कोरोना के संक्रमण से मरे तो महामारी की भेंट चढ़ जायेंगे। लेकिन अगर भूख से जिंदगी गई तो अर्थव्यवस्था के मामले में भारत एक कमजोर देश साबित होगा।



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