नवीन चौहान,हरिद्वार। पुलिस महकमे में कांस्टेबल का पद सबसे महत्वपूर्ण होता है। इसे पुलिस महकमे की रीढ़ की हड्डी कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सरकार के मंत्रियों से लेकर पुलिस अफसरों तक की सुरक्षा का दायित्व इन कांस्टेबलों के कंधों पर होता है। पुलिस महकमे के अंदर सूचना जुटाने से लेकर बदमाशों की गिरफ्तारी करने में इन कांस्टेबलों का भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इन बहादुर कांस्टेबलों ने कई बार अपनी काबलियत का लोहा मनवाया है। उत्तराखंड पुलिस के एक कांस्टेबल सुनित नेगी ने तो बदमाशों से मुकाबला करने के दौरान अपने प्राणों तक की परवाह नहीं की। लेकिन जब बात इन कांस्टेबलों को वीरता के लिये पुरस्कार से नवाजे जाने की आती है तो इनकी फाइलें सरकार के मंत्रियों और पुलिस अफसरों की मेज पर धूंल फांकती रहती है।सरकार के मंत्रियों और पुलिस अफसरों को कांस्टेबलों की कोई सुध नहीं रहती है। जिसके चलते जवानों के मनोबल पर प्रभाव पड़ता और वह महज ड्टूटी तक सीमित रह जाते है।
पुलिस महकमे का सबसे मजबूत स्तंभ पुलिस कांस्टेबल बहादुरी के कारनामों को अंजाम देने के बाद सालों तक अपने वीरता पुरस्कार की प्रतीक्षा करता रहता है। हम बात कर रहे है उत्तराखंड राज्य के उन बहादुर कांस्टेबलों की जिन्होंने पुलिस डयूटी से ऊपर उठकर अपनी जिंदगी की परवाह ना करते हुये दूसरों के जीवन की रक्षा की। इस बहादुरी के लिये जवानों के अफसरों ने पुरस्कार की संस्तुति की। लेकिन वो फाइले शासन के दफ्तरों में धूंल फांक रही है।
हरिद्वार जनपद की बात करे तो एक कांस्टेबल दिनेश वर्मा ने साल 2014 में अपनी जिंदगी को खतरे में डालकर गंगा के टापू पर फंसे कांवडियों की जिंदगी को बचाया। जिसके लिये तत्कालीन पुलिस अफसरों ने पुरस्कार की संस्तुति की थी। लेकिन आज तक कांस्टेबल दिनेश वर्मा को पुरस्कार नहीं मिल पाया।
ऐसे ही कई और मामलों में कांस्टेबलों के वीरता पुरस्कारों की फाइले शासन दफ्तरों की अलमारियों में कैद है। जब प्रदेश के डीजीपी अनिल रतूड़ी से इन बहादुर जवानों के पुरस्कार के संबंध में बात की गई तो उन्होंने कहा कि जवानों को उनकी बहादुरी के लिये समय-समय पर पुरस्कार दिया जाता है। वीरता पुरस्कारों की फाइल जनपद स्तर से शासन स्तर तक पहुंचती है। इन फाइलों दिखवाना पड़ेगा कि कब से पुरस्कार नहीं मिले है।