नवीन चौहान,
हरिद्वार। माना कि निजी स्कूल शिक्षा का व्यवसाय करते है। अभिभावकों की जेब काटकर अपना खजाना भर रहे है। इन निजी स्कूलों की इतनी लूट और ज्यादतियों के बावजूद अभिभावकों का स्कूल के प्रति क्रेज क्यो है। इन नामी स्कूलों में एडमिशन कराने के लिये मंत्री, प्रशासनिक अधिकारियों की सिफारिशें क्यो कराते है। इससे एक बात तो साफ होती है। इन निजी स्कूलों में कुछ बात तो है जो इन स्कूलों को खास बनाती है। निजी स्कूलों की भारी भरकम फीस होने के बावजूद भी अभिभावक अपने बच्चे का एडमिशन निजी स्कूलों में कराने के लिये दौड़ लगाते है। स्कूलों के प्रधानाचार्यो से मिलने के लिये घंटो ऑफिस के बाहर प्रतीक्षा करते है। एडमिशन कराने के बाद चंद अभिभावक ही स्कूलों को लुटेरा होने की बात करते है। जबकि 95 फीसदी अभिभावक स्कूलों की फीस से पूरी तरह संतुष्ट नजर आते है। यही कारण है कि नौकरशाह से लेकर मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के बच्चे निजी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे है।
स्कूल शिक्षा का मंदिर होता है। जिसमें शिक्षक बच्चों के भविष्य का निर्माण का कार्य करते है। नर्सरी कक्षा से ही बच्चों को संस्कारवान बनाने और जीवन शैली में आचार विचार के बीज रोपने का कार्य स्कूल करते है। इन निजी स्कूलों में बच्चों को चलने से लेकर बोलने और बैठने का तौर तरीका सिखाया जाता है। इसके बाद अक्षरज्ञान दिया जाता है। जैसे-जैसे बच्चा दूसरी कक्षा में प्रवेश करता है, उसको सामान्य ज्ञान दिया जाता है। कंप्यूटर और तमाम खेलकूद की विधाओं से अवगत कराया जाता है। नर्सरी से लेकर पांचवी कक्षा तक निजी स्कूलों का बच्चा शिक्षित और सभ्य नजर आता है। बच्चों में ज्ञान का बीजारोपण करने के लिये सभी निजी स्कूलों में अपनी-अपनी विशेषतायें होती है। निजी स्कूलों की ये ही विशेषता उनको नामी गिरामी और खास बनाती है। स्कूलों को नामी बनाने के पीछे निजी स्कूल के मैनेंजमेंट की सोच वहां के शिक्षकों का अथाह परिश्रम और कर्मचारियों की मेहनत होती है। जो निजी स्कूल इस पूरे सिस्टम के साथ बेहतर कार्य करता है वह नामी स्कूलों में शामिल हो जाता है।
नामी स्कूलों में एडमिशन का क्रेज
नामी गिरामी निजी स्कूलों को संचालित करने और वहां की व्यवस्थाओं के बजट को संतुलित करने के लिये अभिभावकों से फीस ली जाती है। निजी स्कूलों की फीस स्कूल के खर्च के अनुरूप होती है। जिससे शिक्षकों, शिक्षणेत्तर कर्मचारी व स्टॉफ का वेतन, बिजली, पानी और रख रखाव पूरा होता है। जिस स्कूल की जैसी व्यवस्था वैसी ही वहां की फीस होती है। इन नामी स्कूलों में एडमिशन कराने के लिये अभिभावकों में क्रेज होता है।
किताबों की भी हकीकत जानो
उत्तराखंड सरकार ने अभिभावकों के हित को देखते हुये निजी स्कूलों में एनसीईआरटी की बुक लागू कर दी। एनसीईआरटी की निजी स्कूलों के प्रकाशकों के मुकाबले बेहद सस्ती दरों की है। इन किताबों को सरकार छपवाती है। जिसके लिये रियायती दरों पर सरकारी कागज मिलता है। एनसीईआरटी की बुक में आर्ट एंड क्राफ्ट, कंप्यूटर व तमाम वो किताबे नहीं है जो बच्चों को प्रतिभावान बनाती है। सामान्य कोर्स की किताबे है। जबकि निजी स्कूल अपने निजी स्कूलों के कंपटीशन को देखते हुये बेहतर से बेहतर किताबें लगाने का प्रयास करता है। जिससे उनके स्कूलों के बच्चे श्रेष्ठ बने और स्कूल का नाम रोशन करें। अब जब सरकार ने सभी निजी स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबें लगाने का निर्णय सख्ती से लागू कर ही दिया तो फिर निजी स्कूलों की आपसी प्रतियोगिता भी समाप्त हो गई। फिर एडमिशन को लेकर निजी स्कूलों की दौड़ को लेकर सिफारिशों का दौर भी खत्म होना चाहिये।
बच्चों के भविष्य पर संकट
भले ही वोट बैंक की राजनीति के चलते उत्तराखंड सरकार एनसीईआरटी की बुक को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही हो। लेकिन शिक्षा जगत और देश के बच्चों के सुनहरे भविष्य पर संकट के बादल साफ दिखाई दे रहे है। बच्चों में प्रतियोगिता करने की भावना पर ग्रहण लग जायेगा। जिस स्कूल का नाम लेकर अभिभावक आज खुश होकर खुद को गौरवांवित महसूस कर रहे है। वही खुद को छला हुआ भी महसूस करेंगे। उत्तराखण्ड सरकार अभिभावकों की जेब का वजन हल्का कर कुछ वोट तो हासिल कर सकती है लेकिन बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में दस साल पीछे धकेल देगी।
सरकार का निर्णय समझ से परे
देश की सरकारे जहां सभी सरकारी विभागों का निजीकरण करने में लगी है वहीं निजी स्कूलों की चलती चलाती व्यवस्था पर प्रहार किया जा रहा है। उत्तराखंड के सरकारी स्कूलों की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है। सरकार ने सरकारी स्कूलों में कोई नयी व्यवस्था लागू नहीं की। सरकार खुद सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी स्कूल नहीं भेज पाई। ऐसे में निजी स्कूलों की व्यवस्था से खिलवाड़ कर सरकार क्या संदेश देना चाहती है? ये समझ से परे की बात है।