त्रिवेंद्र को बदलना भाजपा हाईकमान की बड़ी भूल, भाजपा हाईकमान ने की जनता के बेवफाई





नवीन चौहान

पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को बदलने का निर्णय भाजपा हाईकमान की एक बड़ी भूल साबित होता दिखाई पड़ रहा है। उत्तराखंड में चार साल तक जीरो टॉलरेंस की मुहिम को लेकर पारदर्शी सरकार चला रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत की अचानक यूं विदाई एक तरह से जनता से बेवफाई है। वही दूसरी ओर नेतृत्व परिवर्तन के बाद से ही भाजपा का सियासी गणित पूरी तरह से बिगड़ा हुआ है। उलझे गणित को सुलझाने का फार्मूला ​भी भाजपा हाईकमान के पास ही है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि भाजपा हाईकमान चंद विधायकों की नाराजगी को दूर करने के चक्कर में जनता के मिजाज को समझने में नाकाम रहे। आखिरकार भाजपा हाईकमान को इतना तो समझना ही था कि सियासी सफर में ईमानदारी से कार्य करना आसान नही होता।
उत्तराखंड की सियासत में भाजपा में उथल पुथल मची है। त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल के एक सप्ताह पूर्व ही भाजपा हाईकमान ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को एकाएक मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटने का फरमान ​सुना दिया। त्रिवेंद्र ने भी कुर्सी को बचाने के लिए कोई जोड़—तोड़ और गुणा — भाग नही किया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नडडा के आदेश आया तो वह तत्काल राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने निकल गए। त्रिवेंद्र का व्यक्तित्व भी ऐसा नही है कि वह अपनी सफाई में कुछ कहते। सिफारिश करने की उनकी आदत नही है। जब उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली थी तो वह भी भाजपा हाईकमान का निर्णय ही था। इसीलिए कुर्सी छोड़ने के निर्णय से उनको कोई तकलीफ भी नही हुई। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्यमंत्री की कुर्सी के सम्मान को बरकरार रखा और अपने दामन को बेदाग रखा। यही कारण है कि उनका आत्मविश्वास चरम पर है। ईमानदारी उनकी आंखों में सच्चाई बयां कर रही है।
बात करते है त्रिवेंद्र सिंह रावत के चार साल के सफर की तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते के दौरान उत्तराखंड की आर्थिक​ स्थिति बहुत अच्छी नही थी। कर्ज में डूबे उत्तराखंड की सरकार को संतुलित तरी​के से चलाने का विजन और विकास की योजनाओं को धरातल पर उतारने का उनका विजन था। त्रिवेंद्र सिंह रावत झूठे आश्वासन देने और महज हवा हवाई घोषणाएं करने में यकीन नही रखते है। सो उन्होंने बातें कम काम ज्यादा की तर्ज पर कार्य शुरू किया। बजट के अनुरूप ही घोषणाएं की। उत्तराखंड की कानून व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए काबिल, मेहनती और ईमानदार अफसरों को जनपदों की जिम्मेदारी दी।
त्रिवेंद्र ने अपना पूरा फोकस जनपदों के सर्वागीण विकास कार्यो पर दिया। विकास कार्यो की समीक्षा में अफसरों के पेंच भी कसे। लेकिन सबसे बड़ी बात कि इस अफसरों की नियुक्ति भी पारदर्शी तरीके से की। इन अफसरों से कभी कोई सिफारिश नही की। जनता और कार्यकर्ता के प्रति समान दृष्टिकोण बनाकर रखा। जनहित के कार्यो को प्राथमिकता दी। एक परिवार की भांति प्रदेश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में प्रयत्नशील रहे।
जनता और कार्यकर्ताओं के बीच में अंतर नही करने के चलते भाजपा विधायकों की नाराजगी त्रिवेंद्र से बढ़ने लगी। भाजपा के विधायक अपने चेले चपाटों को सरकारी कार्यो के ठेके दिलाने में नाकाम रहने लगे। विधायकों के चेलों ने गुर्राना शुरू किया तो विधायकों ने मुख्यमंत्री को आंखों तरेरनी शुरू कर दी।
भाजपा विधायकों की नाराजगी का सिलसिला यही से शुरू हुआ। कुल मिलाकर कहा जाए कि त्रिवेंद्र की ईमानदारी विधायकों को भारी पड़ने लगी। जिसके बाद विधायकों का गुस्सा नेतृत्व परिवर्तन के बाद ही शांत हुआ।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल जस का तस है कि नेतृत्व परिवर्तन से उत्तराखंड को हासिल क्या हुआ। विधायकों की नाराजगी और हाईकमान का जल्दबाजी में लिया गए निर्णय ने उत्तराखंड में भाजपा को असहज कर दिया। प्रदेश अध्यक्ष बदले गए।
त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में भाजपा की सरकार जो पांच साल ईमानदारी से कार्य करने का कीर्तिमान बनाने जा रही थी। अब विपक्ष और जनता के उपहास का कारण बन गई है। जनता की अदालत में जाने से पहले नेतृत्व परिवर्तन का जबाब नही है। सरकार कठघरे में ​है। विपक्षी पार्टी कांग्रेस भाजपा की मजाक बना रहा है। भाजपा नेता हाईकमान का निर्णय बताकर जनता के सवालों से पीछा छुड़ा रहे है।
नेतृत्व परिवर्तन के बाद
से भाजपा के हालात विकट है। सरल स्वभाव के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे है। प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक भाजपा को 60 प्लस सीटों पर जीत दर्ज कराने का दंभ भर रहे है। त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने पुराने में जनता के बीच में भाजपा को मजबूत करने का कार्य कर रहे है। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का कोई मोह, लोभ, लालच उनके चेहरे पर नही है।
एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह ही वह जनता के बीच में है। कोरोना संक्रमण से जनता को सुरक्षित बचाने के लिए लगातार अपील कर रहे है। प्रदेश भर में रक्तदान शिविरों का आयोजन कर रहे है। युवाओं को भाजपा से जोड़ने में जुटे है। कुमाऊं दौरे पर निकले तो उधमसिंह नगर, नैनीताल,अल्मोड़ा, वागेश्वर क्षेत्र की जनता के बीच रहे। सभी की समस्याओं को सुना और दूर करने की दिशा में पहल की।

फिलहाल की बात करें तो भाजपा में अंर्तकलह और विरोध जारी है। चिंतन बैठक के बाद से मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को दिल्ली बुलाना सियासी गलियारों में चर्चाओं को तेज कर रहा है। तीरथ सिंह रावत चुनाव लड़ेंगे या उनकी भी विदाई होगी। हालांकि तीरथ सिंह रावत के सामने चुनाव लड़ने का कोई संवैधानिक संकट तो नही है। कुछ तकनीकि अड़चने है वह दूर हो सकती है। अब सब कुछ भाजपा हाईकमान पर निर्भर है कि तीरथ सिंह रावत को चुनाव कब और कहां से लड़ाना है। गंगोत्री में उनका चुनावी सफर आसान नही होगा। यमकेश्वर सीट उनको विजय दिला सकती है। लेकिन यह सब कुछ तभी होगा जब हाईकमान चाहेगा। फिलहाल तो मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को अपनी स्पीड को बढ़ाना होगा जनता के बीच रहकर कार्य करना होगा। सलाहकारों पर आंख मूंदकर भरोसा करने की भूल उनको नही दोहरानी है।



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