देहरादून।
घोषणा पत्र, आम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों की एक अहम रस्म । घोषणा पत्र को राजनैतिक दलों का ऐसा शपथ पत्र भी कहा जा सकता है, जिससे आम चुनाव में जनता का भरोसा जीतने की कोशिश की जाती है। अवधारणा तो संभवतः यह रही होगी कि अपने चुनाव घोषणा पत्र के जरिए राजनैतिक दल व्यवस्था के प्रति अपनी राजनैतिक सोच, प्राथमिकताएं और कार्ययोजना आमजन तक पहुंचायेंगे । मगर बदलते वक्त के साथ राजनैतिक घोषणा पत्रों के मायने भी बदल चुके हैं ।
अब सियासी दलों में अपना घोषणा पत्र समय पर मतदाता तक पहुंचाने की होड़ भी नहीं रहती, नतीजा चुनाव के अंतिम दिनों में चुनावी घोषणा पत्र औपचारिकता के तौर पर जारी किए जाते हैं। घोषणा पत्रों में आम मतदाता की दिलचस्पी भी सिर्फ यह जानने की है कि कौन सा दल क्या मुफ्त देने का वादा कर रहा है । दरअसल चुनाव जनता के मुददों या नेतृत्व के सवाल का तो है ही नहीं ।
सियासत के आइने में घोषणा पत्रों को देखा जाए तो कांग्रेस का प्रतिज्ञा पत्र भाजपा के दृष्टि पत्र पर भारी पड़ा है । कांग्रेस ने सत्तर पेज के अपने प्रतिज्ञा पत्र को उत्तराखंडी स्वाभिमान का नाम दिया है। इस शीर्षक से कांग्रेस ने एक आदर्श राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत करने की कोशिश की है, लेकिन पांच साल की सरकार के लिए यह व्यवहारिक नहीं जान पड़ता है । प्रतिज्ञा पत्र के बहाने कांग्रेस ने राज्य के संवेदनशील मसलों को तो छूआ है, लेकिन सरकार में आने वह उन पर कायम रह पाएगी इस पर संदेह है ।
प्रतिज्ञा पत्र निसंदेह लोकलुभावन और जनपक्षीय है मगर इसे तैयार करते वक्त संभवतः कांग्रेस यह भूल गयी कि निर्वाचित सरकारों के बीस साल के कार्यकाल में दस साल का कार्यकाल कांग्रेस का भी रहा है ।
कंग्रेस के प्रतिज्ञा पत्र की खास बात यह भी है इसमें पूरी तरह हरीश रावत की छाप है । हरीश रावत जिन मुददों को लंबे समय से अपनी फेसबुक वाल पर उठाते रहे हैं, उनमें से अधिकांश को हूबहू इस प्रतिज्ञा पत्र में शामिल किया गया है । खासकर उत्तराखंडियत के सरंक्षण और संवर्धन की बात प्रमुखता से की गयी है । ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के राष्ट्रवाद के दाव पर कांग्रेस ने उत्तराखंडियत का मुद्दा उछाला है । जिस तरह भाजपा का राष्ट्रवाद स्पष्ट नहीं है उसी तरह कांग्रेस का उत्तराखंडियत भी स्पष्ट नहीं है ।
अब आते हैं भाजपा के घोषणा पत्र यानि दृष्टि पत्र पर । जिसका मुख्य आकर्षण लव जिहाद कानून और राज्य में भूमि पर अवैध कब्जे के कारण हो रहे भू और जनसांख्यिकी परिवर्तन है। भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में वायदा किया है कि फिर से सरकार में लौटी तो लव जिहाद पर कानून को कड़ा करेगी । जमीनों पर अवैध कब्जों के कारण जनसांख्यिकी परिवर्तन पर अधिकार प्राप्त समिति बनायी जाएगी ।
निसंदेह यह भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है लेकिन सवाल यह है कि प्रदेश के लिए यह गंभीर मुद्दा है तो अब तक सरकार कहां सोयी हुई थी ? बीते पांच साल से प्रदेश में भाजपा की सरकार थी, क्यों नहीं सरकार अब तक इस पर एक्शन नहीं ले पायी ? अवैध कब्जे भाजपा की चिंता हैं तो भाजपा ने अपने शासनकाल में जनसांख्यिकी परिवर्तन वाले कब्जे क्यों होने दिए ।
सच्चाई तो यह है कि जनसांख्यिकी परिवर्तन सिर्फ अवैध कब्जों के कारण नहीं बल्कि जमीनों की खरीद फरोख्त के कारण ज्यादा हुआ है । इस पर रोक के लिए भू कानून अहम हो सकता था लेकिन उस पर भाजपा खुद कटघरे में हैं । दिलचस्प यह है कि जनसांख्यिकी परिवर्तन पर चिंता व्यक्त करने वाले दृष्टि पत्र में भी भाजपा ने भू कानून से पूरी तरह किनारा किया हुआ है ।
भाजपा का दृष्टि पत्र कांग्रेस की तरह विस्तार लिए हुए नहीं है, मगर गरीब घरों को साल में तीन एलपीजी सिलेंडर और प्रशिक्षित बेरोजगारों को साल भर तक तीन हजार रूपए, किसानों को दो हजार रूपए प्रतिमाह देने का वायदा भाजपा का भी है । कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा भी सरकार में आते ही 24 हजार नौकरियां देने की बात कर रही है। युवाओं के लिए एक राज्य में एक कौशल प्रमुख नियुक्त करने और 50 घरों पर स्थानीय ग्राम प्रबंधक नियुक्त करने की नयी बात भी भाजपा के दृष्टि पत्र में शामिल है ।
वोटरों के लिहाज से देखा जाए तो भाजपा की दृष्टि पूर्व सैनिकों और उनके परिवारों पर ज्यादा है। भाजपा ने पूर्व सैनिकों और उनके परिजनों की सुविधाएं बढ़ाने का वायदा है । असंगठित मजदूरों और गरीबों को 6 हजार तक की पेंशन और पांच लाख का बीमा कवर करने की बात प्रमुखता से कही है ।
दृष्टि पत्र में दूरदर्शिता का आभाव है। अवस्थापना व ढांचागत विकास की जिन योजनाओं का प्रमुखता से जिक्र किया गया है उनमें से अधिकांश का सीधा संबंध केंद्र सरकार से हैं । कुल मिलाकर भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में भी केंद्र को ही केंद्र में रखा है, अपने बूते पर नया करने का कोई संकल्प इसमें नहीं लिया गया है ।
बहरहाल जो दृष्टि पत्र और प्रतिज्ञा पत्र आम जनता तक ही नहीं पहुंचेगे तो उनकी अहमियत क्या होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है ? हकीकत यह है कि चुनाव के बाद पूरे पांच साल यही घोषणा पत्र पार्टी कार्यालयों में रददी के ढेर धूल फांक रहे होगे। रहा सवाल सरकार का तो सरकार किसी घोषणा पत्र के हिसाब से नहीं बल्कि “सरकार” के हिसाब से चलती है । देखना बस इतना होगा कि सरकार ‘दृष्टि’ और ‘प्रतिज्ञा’ की कसौटी पर कितना खरा उतरती है ।
योगेश भट्ट की रिपोर्ट