इस ‘समुंद्र मंथन’ से ‘अमृत’ निकालो तो बात बने…




योगेश भट्ट

बहुत अच्छा है कि राज्य सरकार इस बार स्थापना दिवस की शुरुआत ‘रैबार’ से करने जा रही है। सुना है इस ‘रैबार’ में उत्तराखंड मूल से जड़ी बड़ी हस्तियां को ‘मेला’ जुटेगा। ये वो हस्तियां हैं जो देश-दुनिया में आज बड़े मुकाम पर हैं। मुख्यमंत्री आवास में जुटने वाले इस ‘मेले’ में मंथन होगा तो राज्य के विकास के साथ ही तमाम मुद्दों पर चिंता और चर्चा भी होगी। जिस ‘मंथन’ में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल खुद मौजूद रहें, उनके साथ थल सेना प्रमुख विपिन रावत, रेलवे बोर्ड चेयरमैन अश्विनी लोहानी सहित तकरीबन दर्जन भर उत्तराखंड के बडे हस्ताक्षर मौजूद हों और मुद्दा सिर्फ उत्तराखंड और उसका भविष्य हो तो इसमें कोई दोराय नहीं कि इससे बड़ा सौभाग्य उत्तराखंड का हो ही नहीं सकता। कोई शक नहीं कि इस लिहाज से यह मंथन उत्तराखंड के लिये किसी ‘समुद्र मंथन’ से कम नहीं होना चाहिए । निसंदेह इससे निकला ‘अमृत’ उत्तराखंड के लिये मील का पत्थर साबित होगा, बशर्ते मकसद साफ हो, मंशा वही हो जो प्रचारित किया जा रहा है । दरअसल यह उत्तराखंड का दुर्भाग्य रहा है कि यहां होने वाले आयोजनों खासकर उत्तराखंड के विकास, नीति और समस्याओं पर चर्चा के नाम पर होने वाले आयोजनों में अक्सर आयोजकों की मंशा साफ नहीं होती। सवाल वही पुराना ‘नीयत’ का है। सत्रह साल बाद भी अगर उत्तराखंड आज हाशिए पर है तो उसका एकमात्र कारण ‘नीयत’ ही तो है। चाहे वह नेताओं की नीयत हो, अफसरों की नीयत हो, जनता की नीयत हो या फिर पत्रकारों, ठेकेदारों, आंदोलनकारियों और कमर्चारियों की नीयत । कहीं न कहीं खोट हर किसी की ‘नीयत’ में रहा है।कड़वा सच यही है कि कोई भी उत्तराखंड से गद्दारी करने में पीछे नहीं रहा। राज्य का हित तो बीते कल भी ‘हाशिए’ पर था और आज भी हाशिए पर ही है । अभी तक का अनुभव तो यही है कि हर सरकार के कार्यकाल में सत्ता कठपुतली बन कर रही है। सत्ता के ‘दलालों’ ने चेहरे बदल-बदल कर अपने मंसूबों को बखूबी अंजाम दिया है। चलिए फिलहाल तो विषय नए उत्तराखंड का है। बात सरकार द्वारा प्रचारित नए उत्तराखंड की हो रही है, जिसकी नींव ‘रैबार’ में रखी जानी है। एक नए उत्तराखंड की परिकल्पना का खाका चंद घंटों के वीवीआईपी मेले में से निकल आए या उसकी ठोस नींव रख दी जाए इसमें शंका है। यह मेला अगर मात्र ‘पावर शो’ बनकर रह गया तो नए उत्तराखंड की परिकल्पन तो फिर बेइमानी है। दरअसल इस आयोजन को लेकर कोई शंका नहीं। आयोजन को तो पूरा सरकार का संरक्षण है, शंका है तो सिर्फ ‘मंशा’ को लेकर। शंका इसलिये है क्योंकि यह कार्यक्रम राज्य सरकार का मौलिक कार्यक्रम नहीं है। दरअसल इस कार्यक्रम के मूल में ‘हिल मेल’ नाम की दिल्ली की एक संस्था है, संस्था दिल्ली में हो सकता हो बहुत सक्रिय हो लेकिन उत्तराखंड अभी तक इस संस्था से पूरी तरह अनभिज्ञ और अपरिचित है। संस्था का उत्तराखंड को लेकर कितना अध्ययन है, कितनी समझ है इसका किसी को कोई अंदाजा नहीं। हां, संस्था की पकड़ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि संस्था यह कार्यक्रम बहुत पहले तय कर चुकी थी और हंस फाउंडेशन, ओएनजीसी और पतंजलि इसके प्रायोजक थे, महत्वपूर्ण यह है कि मुख्यमंत्री आवास में ही यह कार्यक्रम निर्धारित था। लेकिन अभी कुछ दिन पहले इस कार्यक्रम को सरकारी चादर ओढ़ दी गई है, ऐसा क्यों किया गया यह अनुत्तरित है। सरकार ने इस कार्यक्रम को ‘हाईजैक’ किया या फिर संस्था ने इसे सरकारी जामा पहनवाया यह स्पष्ट नहीं है। कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा आंशिक संशोधन के साथवही है जो पहले से तय थी। संशोधन में पूर्व नौकरशाह राकेश शर्मा जो मौजूदा समय में सलाहकार पतंजलि हैं का नाम उन शख्सियतों में से हटा है जो कार्यक्रम में वक्ता के तौर पर शामिल हैं। कार्यक्रम का निमंत्रण राज्य की चुनिंदा शख्सियतों को है, वीआईपी के अलावा प्रवासी भी आमंत्रित नहीं हैं। पहले यह निमंत्रण संस्था के प्रतिनिधि की ओर से था अब उसमें मुख्यमंत्री के एक ओएसडी का नाम और शामिल हो गया है। खैर आयोजन को लेकर शंका निर्मूल भी नहीं है, उत्तराखंड इस तरह के आयोजनों का आदी हो चुका है। सरकार का राजनैतिक नेतृत्व अक्सर ऐसे आयोजनों को संरक्षण देकर जाने अनजाने किसी न किसी व्यक्ति या संस्था विशेष को पावर दे बैठता है। बाद में वही सरकार के ‘पावर ब्रोकर’ की भूमिका में होते हैं, तमाम ‘डील’ और ‘फैसलों’ में उनकी भूमिका अहम हो जाती है। कई बाद तो वह इतनी बड़ी ताकत भी हो जाते हैं कि सत्ता का गुणा भाग करना तक शुरू कर देते हैं। जहां तक मौजूदा सरकार का सवाल है, सरकार पर सुस्ती के भले ही आरोप हों लेकिन अभी तक वाकई बिचौलियों को पनपाने का कोई आरोप नहीं है। जहां तक रैबार का सवाल है तो मुख्यमंत्री आवास में होने वाले इस वीवीआईपी आयोजन से नए उत्तराखंड का कोई माडल जरूर निकलना चाहिए। बस यह न हो कि आयोजन के कुछ समय बाद आयोजन में शामिल कुछ शख्सियतें उत्तराखंड में कुछ बड़े ओहदों पर शोभायमान आने लगें। कोई सियासत का नया ध्रुव बन जाए। ऐसा न हो कि आयोजन के पार्श्व में जो संस्था है, उसके कर्ताधर्ता देहरादून से दिल्ली तक सियासी गलियारों में ‘पावर ब्रोकर’ की भूमिका में नजर आने लगें। ऐसा भी न हो कि जिन शख्सियतों को आज समस्या विमर्श के बहाने जुटाया गया है, आने वाले दिनों में उनमें से कुछ खुद ही राज्य के लिये बड़ी समस्या बन जाएं। खैर, यह भविष्य का विषय है अभी उम्मीद तो की ही जा सकती है। एक पहलू यह भी यह है कि 17 साल के बाद अगर कोई ईमानदार पहल हो रही है तो इसका स्वागत होना ही चाहिए। निसंदेह इस आयोजन की सार्थकता के साथ अब कहीं न कहीं सरकार की प्रतिष्ठा भी जुड़ चुकी है, यह सरकार को ध्यान रखना होगा।



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